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सर्वोच्च न्यायालय ने प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को पर्यावरण क्षतिपूर्ति लगाने का अधिकार दिया

सर्वोच्च न्यायालय ने प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को पर्यावरण क्षतिपूर्ति लगाने का अधिकार दिया

चर्चा में क्यों?  

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति बनाम लोदी प्रॉपर्टी कंपनी लिमिटेड मामले में एक अहम फैसला सुनाया। इस निर्णय में कोर्ट ने कहा कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (PCB) अब पर्यावरण क्षतिपूर्ति और पुनर्स्थापनात्मक हर्जाना (restitutionary & compensatory damages) लगा सकते हैं। 

दिल्ली उच्च न्यायालय ने पहले बोर्डों द्वारा ऐसे हर्जाने लगाने को उनकी शक्तियों से बाहर माना था, किंतु सर्वोच्च न्यायालय की पीठ (न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा व न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा) ने हाईकोर्ट का निर्णय उलट दिया। यह फैसला ऐसे समय आया है जब भारत भीषण प्रदूषण संकट का सामना कर रहा है – उदाहरण के लिए, 2018 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) ने 323 नदियों में 351 प्रदूषित नदी खंडों की पहचान की थी, और 2019 में वायु प्रदूषण से देश में 17 लाख से अधिक अकाल मृत्यु हुई थी। इन परिस्थितियों में पर्यावरण नियामकों को मजबूत अधिकार देकर प्रदूषण से निपटने के प्रयासों को बल मिल सकता है।

पुनर्स्थापनात्मक व प्रतिपूरक क्षतिपूर्ति

  • सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि प्रदूषणकारी इकाइयों द्वारा पर्यावरण को हुए नुकसान की भरपाई के लिए PCB पुनर्स्थापनात्मक (restoration) एवं प्रतिपूरक (compensatory) क्षतिपूर्ति वसूल सकते हैं। इसमें नियामक प्रदूषकों पर एक निश्चित धनराशि का जुर्माना लगा सकते हैं या भविष्य में संभावित नुकसान की भरपाई हेतु उनसे बैंक गारंटी जमा कराने को कह सकते हैं। 
  • अदालत ने स्पष्ट किया है कि इन उपायों का उद्देश्य दंड देना नहीं, बल्कि प्रदूषित पर्यावरण का सुधार और पुनर्स्थापन करना है। अर्थात् इन क्षतिपूरक राशियों का उपयोग प्रभावित पर्यावरण (जैसे दूषित नदी या वायु गुणवत्ता) को उसकी मूल, स्वच्छ अवस्था में लौटाने के लिए किया जाएगा। 
  • यह दृष्टिकोण ‘पोल्यूटर पेज़ प्रिंसिपल’ (Polluter Pays) पर आधारित है, जिसमें प्रदूषक को अपने कार्य से हुए नुकसान का आर्थिक भार उठाना पड़ता है।

विधिक प्रावधान व शक्तियाँ

  • न्यायालय ने अपने निर्णय में जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम 1974 की धारा 33A तथा वायु (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम 1981 की धारा 31A का उल्लेख किया। ये प्रावधान राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को लिखित आदेश द्वारा उद्योगों/इकाइयों को प्रदूषण रोकने हेतु दिशानिर्देश जारी करने की शक्ति देते हैं। 
  • इन धाराओं के तहत बोर्ड प्रदूषणकारी इकाइयों को बंद करने, उनके संचालन पर रोक लगाने, या बिजली-पानी जैसी सुविधाएँ काटने जैसे कदम उठा सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने व्याख्या की कि इन्हीं शक्तियों के अंतर्गत बोर्ड प्रदूषण के संभावित जोखिम को रोकने के लिए अग्रिम रूप से जुर्माना या बैंक गारंटी जैसी शर्तें भी लगा सकते हैं। 
  • यह 1988 में उपरोक्त अधिनियमों में जोड़े गए संशोधनों का प्रतिफल है, जिसने बोर्डों को प्रदूषण रोकथाम के लिए व्यापक आदेश जारी करने का अधिकार प्रदान किया था।

‘पोल्यूटर पेज़’ सिद्धांत 

  • इस फैसले ने भारतीय पर्यावरण न्यायशास्त्र में स्थापित पोल्यूटर पेज़ सिद्धांत को और मजबूती प्रदान की है। न्यायालय ने दो टूक कहा कि पर्यावरण को वास्तविक क्षति हुई हो ये अनिवार्य नहीं है; यदि किसी गतिविधि से पर्यावरण को संभावित गंभीर नुकसान होने की संभावना है, तब भी प्रदूषक से क्षतिपूर्ति ली जा सकती है। अर्थात, पर्यावरणीय क्षति की संभावना मात्र से ही यह सिद्धांत लागू हो जाता है। 
  • कोर्ट ने पूर्व के वेल्लोर सिटिज़न्स वेलफेयर फोरम बनाम भारत संघ (1996) तथा इंडियन काउंसिल फॉर एनवायरो-लीगल एक्शन बनाम भारत संघ (1996) जैसे ऐतिहासिक मामलों का हवाला दिया, जिनमें यह माना गया था कि पर्यावरण को हुए नुकसान की भरपाई करवाना न केवल एक वैधानिक बल्कि संवैधानिक दायित्व है, न कि दंडात्मक कार्रवाई। 
  • इस प्रकार, वर्तमान निर्णय में भी कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि प्रदूषणकर्ता ने निर्धारित मानकों का उल्लंघन करके या बिना उल्लंघन के भी पर्यावरण को नुकसान पहुँचाया है या पहुँचाने की कगार पर है, तो उससे प्रतिपूरक हानि की भरपाई कराना न्यायोचित है।

गौण विधान (उपविधि) की आवश्यकता 

  • सुप्रीम कोर्ट ने जोर देकर कहा कि PCB द्वारा इन क्षतिपूरक शक्तियों के उपयोग को प्रभावी बनाने हेतु संबंधित नियमों का विधिसंगत ढाँचा बनाना आवश्यक है। न्यायालय के अनुसार “बोर्ड द्वारा पारदर्शी एवं मनमानी-रहित तरीके से क्षतिपूर्ति तय करने के लिए आवश्यक है कि अधीनस्थ कानून के रूप में स्पष्ट नियमावली व प्रक्रियाएँ अधिसूचित की जाएँ”। 
  • इन नियमों में यह विवरण होना चाहिए कि पर्यावरणीय क्षति का मूल्यांकन कैसे होगा और उसके अनुरूप क्षतिपूर्ति राशि कैसे निर्धारित होगी। साथ ही, इन नियमों में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को समाहित करना अनिवार्य होगा, ताकि जुर्माना लगाने की प्रक्रिया निष्पक्ष व पारदर्शी रहे। वर्तमान में CPCB द्वारा दिसंबर 2022 में जारी “पर्यावरणीय क्षति मुआवजा लगाने हेतु सामान्य रूपरेखा” नामक दिशानिर्देशों का उल्लेख कोर्ट ने किया। 
  • न्यायालय ने निर्देश दिया कि इन दिशानिर्देशों की समग्र समीक्षा कर उन्हें औपचारिक नियमों/उपविधियों के रूप में अधिसूचित किया जाए। जब तक ऐसे नियम नहीं बनते, तब तक बोर्ड क्षतिपूर्ति संबंधी शक्तियों का क्रियान्वयन शुरू नहीं करेंगे। इससे यह सुनिश्चित होगा कि क्षतिपूर्ति लगाने की शक्ति के उपयोग में किसी भी पक्ष के साथ अन्याय या मनमानी न हो। 

सर्वोच्च न्यायालय की अतिरिक्त टिप्पणियाँ

  • कोर्ट ने PCB की भूमिका पर महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों का कानून द्वारा बहुत व्यापक दायित्व निर्धारित है – उन्हें जल और वायु प्रदूषण को रोकने, नियंत्रित करने तथा समाप्त करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है। जल अधिनियम की धारा 17 और वायु अधिनियम की समकक्ष धारा में बोर्डों के कर्तव्यों की विस्तृत सूची है, जिससे स्पष्ट होता है कि जन स्वास्थ्य और पर्यावरण की रक्षा हेतु इन बोर्डों पर भारी ज़िम्मेदारी है। 
  • न्यायालय ने कहा कि इतने व्यापक जनहित दायित्व को निभाने के लिए बोर्डों के पास उचित विवेकाधीन शक्तियाँ होना अपरिहार्य है, ताकि वे प्रत्येक मामले के अनुरूप उचित कार्रवाई चुन सकें। पीठ ने मार्गदर्शक सिद्धांत देते हुए दोहराया कि बोर्ड यह तय कर सकता है कि किसी प्रदूषणकारी इकाई के मामले में केवल आर्थिक दंड पर्याप्त है या पर्यावरण की तुरंत भरपाई कराना आवश्यक है – अथवा दोनों कदम उठाए जाएँ। 
  • इसके अलावा, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि बोर्ड द्वारा पुनर्स्थापनात्मक क्षतिपूर्ति की कार्रवाई उन दंडात्मक प्रावधानों से भिन्न है जो संबंधित कानूनों के अध्याय VI-VII में दिये गए आपराधिक अपराधों (जैसे जेल या जुर्माना) के लिए हैं। बोर्ड द्वारा लगाई गई क्षतिपूर्ति का मकसद पर्यावरणीय सुधार है, जबकि अदालत या अधिकृत अधिकारी द्वारा लगाया जाने वाला जुर्माना एक दंड है। 
  • न्यायालय ने 2022 में पर्यावरण संरक्षण कानूनों में हुए संशोधनों (जिनसे कई अपराध डिक्रिमिनलाइज़ होकर आर्थिक दंड प्रणाली लाई गई) का हवाला देते हुए कहा कि ये संशोधन PCB की मौजूदा शक्तियों को सीमित नहीं करते – बोर्ड फिर भी क्षतिपूरक आदेश जारी कर सकते हैं क्योंकि उनका उद्देश्य अलग और पूरक है।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB)  

  • स्थापना: 22 सितंबर 1974 को जल (1974) अधिनियम के तहत स्थापित, और बाद में वायु (1981) अधिनियम एवं पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के अंतर्गत कार्यक्षेत्र मिला।
  • विभागीय अधीन: पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) के अधीन केंद्रीय संस्था है।
  • मुख्यालय: नई दिल्ली, साथ में 9 क्षेत्रीय निदेशालय और एक प्रोजेक्ट कार्यालय अस्तित्व में है। वर्तमान अध्यक्ष हैं Amandeep Garg IAS, और Member‑Secretary हैं Bharat Kumar Sharma (2025 से)।

CPCB की प्रमुख भूमिकाएँ और कार्यक्षेत्र (Statutory Functions)

जल पूर्ण नियंत्रण अधिनियम, 1974 के अंतर्गत: 

  • धारा 16 के अंतर्गत सलाह देना, राज्य बोर्डों का समन्वय, तकनीकी सहायता, प्रशिक्षण और राष्ट्रीय कार्यक्रमों का संचालन।
  • धारा 18 के तहत राज्य बोर्डों को आदेश जारी करने एवं यदि आवश्यक हो, उनके कर्तव्यों को स्वयं लागू करने का अधिकार।

वायु प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम, 1981:

  • वायु गुणवत्ता मानकों (SO, NO, PM10, PM2.5 आदि) का निर्धारण, निगरानी और पक्षपात रहित अनुपालन सुनिश्चित करना।

CPCB की प्रमुख गतिविधियाँ 

1. राष्ट्रीय वातावरण निगरानी

  • राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता निगरानी कार्यक्रम (NAMP): 29 राज्यों एवं 5 UTs में 621 स्टेशन, 4 प्रमुख प्रदूषक की निगरानी 
  • जल गुणवत्ता निगरानी नेटवर्क: 27 राज्यों + 6 UT में 1019 स्टेशन, 200 नदियाँ, 60 झीलें आदि शामिल हैं 

2. NCAP (National Clean Air Programme) 

  • 2019 में शुरू हुआ NCAP 131 ‘Non‑Attainment’ शहरों को लक्षित करता है, जिसमें PM10 में 20‑30% कटौती 2024 तक करनी थी, जिसे अब ~40% या राष्ट्रीय मानकों तक पहुँचाने का लक्ष्य रखा गया है
  • 123 शहरों को Non‑Attainment के रूप में चिन्हित किया गया और प्रत्येक के लिए Clean Air Action Plan (CAP) तैयार हुआ जिसमें वायु, धूल, वाहन प्रदूषण, निर्माण आदि स्रोतों पर लक्ष्य आधारित हस्तक्षेप शामिल हैं।
  • नवंबर 2022 और अक्टूबर 2023 में GRAP (Graded Response Action Plan) के संशोधन किये गए, जिसका क्रियान्वयन 1 अक्टूबर 2022 से लागू है। CPCB इसके नीति-निर्धारण एवं तकनीकी हिस्से में सक्रिय भूमिका निभा रहा है।

3. निगरानी और प्रवर्तन (Enforcement)

  • ‘Flying Squads’: 2021 से दिल्ली‑एनसीआर में गुप्त निरीक्षण के लिए 40 CPCB अधिकारी फील्ड में तैनात हैं, जो औद्योगिक इकाइयों, निर्माण स्थलों आदि पर अवैध गतिविधियों के खिलाफ कार्रवाई हेतु जानकारी देते हैं।
  • CAQM के साथ तालमेल: CPCB राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की वायु गुणवत्ता अवधारणाओं में CAQM के सदस्य के रूप में शामिल है और प्रदूषण नियंत्रक उपायों जैसे DG सेट क्लीनिंग आदि हेतु दिशा-निर्देश जारी करने का कार्य करता है।

4. हालिया रिपोर्टिंग और विशिष्ट घटनाक्रम

  • STPs की स्थिति रिपोर्ट (दिल्ली): CPCB ने NGT को बताया कि प्रयोग में लाये जा रहे 37 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स में से केवल 20 में ही डिसइन्फेक्शन सिस्टम हैं, और उनमें से भी सभी मानकों पर खरे नहीं उतर रहे। ~14 प्लांट NGT मानकों का उल्लंघन कर रहे हैं; पूरी व्यवस्था जून 2026 तक नियमित करने की प्रक्रिया में है।
  • जल विशुद्धता निगरानी – जनकपुरी, दिल्ली: जुलाई 2025 में CPCB द्वारा 12 घरों के नलों के जल नमूनों में कुल कॉलिफॉर्म और E.coli बैक्टीरिया पाए गए; छह में से दो में ई.कोलाई सैंपल्स उच्च स्तर पर थे, जिससे जल सुरक्षा के मुद्दे उजागर हुए। DJB ने पाइपलाइन इंटरकनेक्शन दोष स्वीकार किया और सुधारात्मक कदम उठाए गए।
  • प्लास्टिक कचरा नियमन: दिल्ली में पान मसाला एवं गुटखा ब्रांडों को गैर-मानक प्लास्टिक पैकेजिंग के कारण नोटिस दिए गए; CPCB ने उन्हें पर्यावरण नियमों का उल्लंघन माना और आगे की कार्रवाई की चेतावनी दी है।

                                 $200 अरब डॉलर का EV अवसर: NITI Aayog की रिपोर्ट के मुख्य निष्कर्ष

चर्चा में क्यों? 

भारत सरकार के थिंक-टैंक नीति आयोग ने हाल ही में एक व्यापक रिपोर्ट जारी की है – “अनलॉकिंग ए $200 बिलियन अपॉर्चुनिटी: इलेक्ट्रिक व्हीकल्स इन इंडिया” (इलेक्ट्रिक वाहनों में $200 अरब का अवसर)। इस रिपोर्ट को 4 अगस्त 2025 को जारी किया गया, जिसका उद्देश्य देश में इलेक्ट्रिक वाहन (EV) क्रांति को गति देना है। 

रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष

  • सरकार का लक्ष्य है कि 2030 तक देश में कुल वाहन बिक्री का 30% हिस्सा EV का हो। अभी तक EV अपनाने की यात्रा धीमी रही थी, लेकिन हाल के वर्षों में इसमें तेज़ी दिखने लगी है। EV वाहनों की बिक्री 2016 में मात्र 50,000 यूनिट से बढ़कर 2024 में 20.8 लाख (2.08 मिलियन) यूनिट को पार कर गई है, जबकि वैश्विक स्तर पर EV बिक्री 2016 में 9.18 लाख से बढ़कर 2024 में 1.878 करोड़ हो गई। 
  • हालांकि भारत में EV का प्रसार अभी वैश्विक औसत से कम है – 2020 में जहाँ हमारा EV बिक्री अनुपात वैश्विक औसत का पाँचवाँ हिस्सा था, 2024 तक यह बढ़कर दो-पंचम (40%) हो गया। फिर भी, रिपोर्ट आगाह करती है कि 2030 के लक्ष्यों को पाने के लिए नीतिगत प्रयासों में और तेजी लाने की आवश्यकता है। 
  • वर्तमान में देश में EV बाज़ार तेजी से वृद्धि कर रहा है और अनुमान है कि आगामी दशक में यह क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए लगभग $200 अरब डॉलर का अवसर प्रस्तुत कर सकता है।

EV क्षेत्र के मुख्य निष्कर्ष और सिफ़ारिशें

  • प्रोत्साहनों से ‘अनिवार्यताओं’ की ओर: वित्तीय सब्सिडी से मिली प्रारंभिक सफलता के बाद अब नीति आयोग का सुझाव है कि सरकार ज़ीरो-उत्सर्जन वाहन (ZEV) अपनाने हेतु अनिवार्य लक्ष्य और पारंपरिक इंजन वाहनों को हतोत्साहित करने वाले नियम तय करे। यानी, प्रोत्साहन जारी रखते हुए कुछ अनिवार्य प्रतिबंध व मानक लागू करना आवश्यक है जिससे EV अपनाने की रफ्तार बढ़े।
  • उच्च उपयोग वाले वाहनों पर प्राथमिकता: कमर्शियल वाहन (बस, ट्रक आदि) देश के कुल वाहनों का केवल 4% हैं लेकिन कुल CO एवं PM उत्सर्जन के आधे से अधिक के लिए जिम्मेदार हैं। इसलिए बसों, ट्रकों जैसे अधिक दूरी तय करने वाले वाहनों का तीव्र विद्युतिकरण पर्यावरण सुधार हेतु सर्वोपरि होगा। नीति आयोग का मानना है कि ऐसी श्रेणियों को EV रूपांतरण में सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाए।
  • वित्तीय व्यवस्था और मॉडल: EV संक्रमण को तेज करने हेतु नई वित्तपोषण रणनीतियाँ सुझाई गई हैं। रिपोर्ट कहती है कि सरकार बसों एवं ट्रकों की खरीद के लिए कम-ब्याज ऋण उपलब्ध कराने हेतु एक संयुक्त कोष स्थापित करे, जिससे सार्वजनिक परिवहन ऑपरेटर आसानी से EV अपना सकें। साथ ही, भविष्य में प्रोत्साहन वाहन द्वारा प्रदान की गई सेवाओं/चालू दूरी के आधार पर देने पर बल दिया गया है, बजाय केवल वाहन या बैटरी की खरीद पर सब्सिडी देने के। इससे इलेक्ट्रिक बसें एवं अन्य सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा मिलेगा।
  • बैटरी लागत व तकनीक: इलेक्ट्रिक वाहन की कुल कीमत में बैटरी का हिस्सा ~40% तक होता है। कीमत कम करने के लिए बैटरी-स्वैपिंग या बैटरी-लीजिंग जैसे मॉडल अपनाने का सुझाव है, जिसमें वाहन और बैटरी का स्वामित्व अलग-अलग हो। इससे EV की शुरुआती लागत काफी घट सकती है, हालाँकि इसके लिए नए व्यावसायिक मॉडल और नीतिगत सहायता की आवश्यकता होगी। साथ ही देश में बैटरी प्रौद्योगिकी में अनुसंधान एवं उत्पादन बढ़ाने पर जोर दिया गया है ताकि सस्ती और उच्च क्षमता वाली बैटरियाँ देश में बन सकें।
  • चार्जिंग अवसंरचना का विस्तार: रिपोर्ट में विशेषकर राजमार्गों एवं शहरी मार्गों पर तीव्र EV चार्जिंग कॉरिडोर विकसित करने पर बल दिया गया है, तथा वितरण कंपनियों द्वारा नए चार्जिंग कनेक्शन प्रदान करने की प्रक्रिया को आसान बनाने की सिफारिश की गई है। दिसंबर 2024 तक देश में 25,000 से अधिक सार्वजनिक EV चार्जर स्थापित हो चुके थे, जिन्हें आने वाले वर्षों में कई गुना बढ़ाना होगा।

EV को बढ़ावा देने वाली मौजूदा नीतियाँ

रिपोर्ट यह भी मानती है कि गत दशक में भारत सरकार और राज्य सरकारों ने EV को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक कदम उठाए हैं। इन नीतिगत प्रयासों ने EV बाज़ार को शुरुआती गति प्रदान की है:

  • केंद्रीय वित्तीय प्रोत्साहन (FAME): 2015 में FAME-I और 2019 में FAME-II योजनाओं के तहत केंद्र सरकार ने लाखों EV की खरीद पर सब्सिडी दी है। FAME-II के तहत जून 2025 तक लगभग 16.3 लाख इलेक्ट्रिक वाहन प्रोत्साहन पाकर सड़कों पर आए हैं।
  • कर एवं शुल्क में रियायत: इलेक्ट्रिक वाहनों पर GST दर मात्र 5% रखी गई है, जबकि पारंपरिक वाहनों पर कुल कर 28% या अधिक होता है। EV खरीदारों को वाहन ऋण के ब्याज पर आयकर छूट (धारा 80EEB) का लाभ मिला है। साथ ही अधिकांश राज्यों ने अपनी EV नीतियों के तहत रोड टैक्स और पंजीकरण शुल्क में छूट सहित खरीदी पर सब्सिडी जैसे प्रोत्साहन प्रदान किए हैं।
  • उत्पादन प्रोत्साहन (PLI): देश में EV तथा बैटरी निर्माण को बढ़ावा देने हेतु केंद्र ने उत्पादन-Linked प्रोत्साहन योजनाएँ लागू की हैं। ऑटोमोबाइल एवं ऑटो-पुर्ज़ा PLI (करीब 26 हजार करोड़) तथा ACC बैटरी PLI (18 हजार करोड़) से भारत में EV निर्माण में बड़े निवेश आ रहे हैं, जिससे देश को EV विनिर्माण हब बनाने में मदद मिल रही है।

इन सरकारी प्रयासों के चलते 2020 के बाद से EV अपनाने में तेज उछाल देखा गया है। वर्ल्ड रिसोर्सेज़ इंस्टिट्यूट (WRI) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2020-2024 के बीच EV बढ़ोतरी से करीब 1 करोड़ टन CO उत्सर्जन का बचाव संभव हुआ है। दिसंबर 2024 तक भारत में 12 लाख से अधिक EV पंजीकृत हो चुके थे, जो उस वर्ष नई वाहन बिक्री का लगभग 5.3% था। यह स्पष्ट संकेत है कि नीतिगत समर्थन कारगर हो रहा है और लोग तेजी से इलेक्ट्रिक वाहनों की ओर रुख कर रहे हैं।

EV के पर्यावरणीय प्रभाव

इलेक्ट्रिक वाहनों के प्रसार से शहरी वायु गुणवत्ता में सुधार होगा क्योंकि इनके संचालन में कोई प्रत्यक्ष उत्सर्जन नहीं होता। वाहनों से होने वाला PM_2.5 और NOx प्रदूषण शहरों में काफी घटेगा, जिससे जन-स्वास्थ्य को लाभ मिलेगा। साथ ही, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में भी भारी कमी संभव है – अध्ययनों से पता चलता है कि वर्तमान बिजली ग्रिड मिश्रण के साथ भी एक इलेक्ट्रिक कार की जीवनचक्र CO उत्सर्जन एक पेट्रोल कार की तुलना में लगभग 30% कम होती है। जैसे-जैसे विद्युत उत्पादन में नवीकरणीय ऊर्जा का हिस्सा बढ़ेगा, EV का कार्बन फुटप्रिंट और घटेगा। इसके अतिरिक्त, EV अपनाने से भारत की तेल आयात निर्भरता कम होगी और ऊर्जा सुरक्षा बढ़ेगी।

प्रदूषण नियंत्रण में ‘कमांड-एंड-कंट्रोल’ उपाय

EV जैसी तकनीकी एवं बाज़ार-उन्मुख पहलों के साथ-साथ प्रदूषण से लड़ने के लिए कठोर नियामक कदम (command-and-control measures) भी मज़बूत करना जरूरी है। कमांड-एंड-कंट्रोल उपायों में सरकार प्रत्यक्ष रूप से मानक तय करती है और उल्लंघन पर दंड लगाती है:

  • वाहन प्रदूषण नियंत्रण: भारत ने 2020 में BS-VI उत्सर्जन मानक लागू करके नए वाहनों से होने वाले प्रदूषण को काफी घटा दिया है। साथ ही, 10-वर्ष पुराने डीज़ल व 15-वर्ष पुराने पेट्रोल वाहनों को चरणबद्ध हटाने के लिए नियम बनाए गए हैं (जैसे दिल्ली-NCR में ऐसा प्रतिबंध लागू है)।
  • उद्योगों पर कड़ा नियंत्रण: प्रदूषणकारी उद्योगों के विरुद्ध भी कठोर कार्रवाई आवश्यक है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि PCB प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों पर क्षतिपूरक हर्जाना लगा सकते हैं, जो ‘पोल्यूटर पेज़’ सिद्धांत को अमल में लाता है। साथ ही विभिन्न उद्योगों के लिए उत्सर्जन मानक (जैसे बिजली संयंत्रों हेतु SO/NOx सीमाएँ) का कड़ाई से अनुपालन कराया जा रहा है।

 

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