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UPSC ESSAY PAPER MODEL ANSWER 2025

  1. सत्य कोई रंग नहीं जानता है।
    Truth knows no color.
      

1893 में दक्षिण अफ्रीका के पीटरमैरिट्ज़बर्ग में एक युवा मोहनदास गांधी को केवल उनकी त्वचा के रंग के कारण ट्रेन से उतार दिया गया था। उस एक घटना ने गांधी के जीवन की दिशा बदल दी और उन्हें मानव समता के सार्वभौमिक सत्य का बोध कराया। यह ऐतिहासिक प्रसंग दर्शाता है कि पूर्वाग्रह जहाँ विभाजन पैदा करते हैं, वहीं सत्य स्वयं किसी “रंग” – जाति, नस्ल या किसी भी भेद – को नहीं जानता। सरल शब्दों में “सत्य कोई रंग नहीं जानता है” का आशय है कि सत्य निष्पक्ष, सार्वभौमिक एवं सबके लिए समान होता है। सत्य की यह निष्पक्षता ही न्याय, समानता, नैतिकता जैसे अन्य मानवीय मूल्यों का आधार बनती है। 

दार्शनिक दृष्टिकोण

दार्शनिक रूप से सत्य की अवधारणा लगभग सभी सभ्यताओं में सर्वोच्च मूल्य के रूप में स्थापित रही है। प्राचीन भारतीय उपनिषदों में कहा गया है “सत्यमेव जयते” अर्थात सत्य की ही अंततः विजय होती है। सत्य को कालातीत और परम धर्म माना गया है। महात्मा गांधी ने सत्य को ईश्वर का रूप माना और अंततः निष्कर्ष दिया कि “सत्य ही ईश्वर है” – अर्थात सत्य से बढ़कर कोई आराध्य नहीं। इसी तरह पश्चिमी दर्शन में इमैनुएल कांट के नैतिक दर्शन (कर्तव्यवादी दर्शन) में कहा गया कि नैतिक नियम सार्वभौमिक होते हैं और इन पर किसी व्यक्ति-विशेष या परिस्थिति का रंग नहीं चढ़ना चाहिए। सत्य अपने आप में निरपेक्ष है, उसका कोई व्यक्तिगत या सामूहिक पक्षपातपूर्ण “वर्गीकरण” नहीं होता।

लेकिन दार्शनिक चिंतन में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि यद्यपि अंतिम सत्य निष्पक्ष हो सकता है, practically मनुष्यों की सत्य तक पहुँच भिन्न हो सकती है। माइकल फूको जैसे विचारकों ने तर्क दिया कि समाज में जो कुछ “सत्य” माना जाता है, वह अक्सर सत्ता संरचनाओं द्वारा निर्धारित होता है। इसी प्रकार जर्मन दर्शनशास्त्री फ्रेडरिक नीत्शे ने कहा था, “यहाँ कोई तथ्य नहीं, केवल व्याख्याएँ हैं” – अर्थात अनेक बार सत्य को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा-परखा जाता है। उदाहरणार्थ, औपनिवेशिक शासकों ने भारत के शोषण को अपना “सभ्यता मिशन” कहकर प्रस्तुत किया, जो उनकी विकृत व्याख्या थी। इन दृष्टांतों से स्पष्ट होता है कि मानव मन अपने पूर्वाग्रहों या हितों के कारण सत्य को “रंगीन चश्मे” से देख सकता है। फिर भी, दार्शनिक आदर्श के रूप में सत्य किसी रंग-भेद को नहीं मानता – अंतिम सत्य सार्वभौमिक और निष्पक्ष ही रहेगा, भले ही उसकी प्राप्ति का मार्ग जटिल हो।

कानूनी एवं संवैधानिक परिप्रेक्ष्य

 

चित्र: न्याय की देवी (Lady Justice) की एक प्रतिमा, जिसमें आँखे ढकी (पट्टीबंध) हैं और हाथों में तराज़ू व तलवार धारण किए हुए हैं। यह दृष्टांत दर्शाता है कि न्याय अंधा (निष्पक्ष) होता है और सत्य व न्याय का तराज़ू सभी के लिए समान रूप से तुला रहना चाहिए। वास्तव में, कानून के शासन में सत्य का कोई रंग नहीं होना चाहिए – कानून सभी व्यक्तियों के साथ समान बर्ताव करे, चाहे उनकी जाति, धर्म, लिंग, भाषा कुछ भी हो। इसी सिद्धांत को भारतीय संविधान में “न्याय और समता” के रूप में प्रतिपादित किया गया है। संविधान का अनुच्छेद 14 सभी व्यक्तियों को क़ानून के समक्ष समानता का अधिकार सुनिश्चित करता है। समान रूप से, अनुच्छेद 15 राज्य द्वारा केवल धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव निषिद्ध करता है। ये संवैधानिक प्रावधान इसी बात पर ज़ोर देते हैं कि न्यायिक सत्य किसी पूर्वाग्रह या “रंग” से प्रभावित नहीं होना चाहिए।

कानूनी प्रक्रिया में भी सत्य की निष्पक्षता को संरक्षित रखने के प्रतीक मिलते हैं। न्यायालयों में गवाही से पहले गीता या धर्मग्रंथ को हाथ में लेकर सत्य बोलने की शपथ दिलाई जाती है, ताकि सत्य ही सामने आए। यदि कोई जानबूझकर झूठी गवाही दे, तो उसे कानून की दृष्टि में अपराध (कसम तोड़ना/झूठी गवाही) माना जाता है – यह सिद्धांत भी सत्य की पवित्रता स्थापित करता है। न्याय की देवी की आँखों पर पट्टी इसी ओर संकेत करती है कि न्याय करते समय न्यायाधीश को यह नहीं देखना चाहिए कि आरोपी या पीड़ित किस धर्म-जाति के हैं; न्याय केवल तथ्यों और सत्य पर आधारित हो। उदाहरण के लिए, एक अमीर एवं प्रभावशाली व्यक्ति दोषी हो तो कानूनी सत्य को उसकी हैसियत का “रंग” नहीं ढकना चाहिए, उसे भी कानून से वही सज़ा मिले जो किसी सामान्य व्यक्ति को मिलती। यह कारण है कि न्यायपालिका में निष्पक्षता (Ipartiality) को सबसे बड़ा गुण माना गया है।

वर्तमान समय में सरकार की पारदर्शिता (transparency) भी “सत्य के रंगहीन” रहने से जुड़ी है। सूचना का अधिकार अधिनियम (RTI) इसी आदर्श पर बना कि जनता को सत्य जानने का अधिकार है, और सरकारी तंत्र को किसी भेदभाव या छिपाव के बिना जानकारी देनी चाहिए। कुल मिलाकर, एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में विधि का राज तभी स्थापित रह सकता है जब सत्यनिष्ठा हो और कानून सबको बराबर समझे – अर्थात सत्य किसी का पक्ष लेकर रंग न बदले।

ऐतिहासिक दृष्टांत

इतिहास गवाह है कि समय-समय पर कुछ लोग या व्यवस्थाएं सत्य को अपने “रंग” में रंगने की चेष्टा करती रहीं, किन्तु अंततः निष्पक्ष सत्य की ही विजय होती आई है। अमेरिका में 19वीं शताब्दी के दौरान रंगभेद और दासप्रथा का जोर था, लेकिन सुधारक फ्रेडरिक डग्लस जैसे नेताओं ने उद्घोष किया – “सही (न्याय) का कोई लिंग नहीं और सत्य का कोई रंग नहीं है”, परमात्मा हम सबका पिता है और हम सब भाई-बंधु हैं। यह प्रसिद्ध कथन 1847 में दिए गए डग्लस के उसी उद्धरण से लिया गया है जो दर्शाता है कि समानता और मानव अधिकार जैसे सत्य शाश्वत हैं, उन्हें नस्ल या लिंग के आधार पर सीमित नहीं किया जा सकता। इसी भावना को आगे बढ़ाते हुए अमेरिका में अब्राहम लिंकन ने 1863 में दासप्रथा उन्मूलन (मुक्ति उद्घोषणा) किया। लिंकन ने सिद्धांततः यह स्वीकार किया कि सभी मनुष्य बराबर हैं, और काले-गोरे का भेद असत्य एवं अन्याय है। यह सत्य कि “सभी जन समान हैं” किसी रंग-भेद को नहीं जानता था और इसी ने आगे चलकर अमेरिका में बराबरी के अधिकार दिलाने में नींव रखी।

भारतीय संदर्भ में भी अनेक ऐतिहासिक घटनाएँ इस कथन को पुष्ट करती हैं। महात्मा गांधी के लिए “सत्याग्रह” केवल राजनीतिक उपाय नहीं बल्कि नैतिक सिद्धांत था – सत्याग्रह का अर्थ ही है “सत्य के प्रति आग्रह”। गांधीजी ने कहा था, “कोई भी धर्म सत्य और सदाचार से बढ़कर नहीं”। उन्होंने जब अफ्रीका में रंगभेद का विरोध किया या भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद को सत्याग्रह से ललकारा, तो उनके पास न सैन्य बल था न सत्ता, परंतु नैतिक बल था सत्य का। अंततः ब्रिटिश शासन का आधार असत्य और अन्याय पर था, जिसे गांधी के नेतृत्व में सत्याग्रह ने परास्त किया – यह दिखाते हुए कि नैतिक सत्य औपनिवेशिक शक्ति से अधिक प्रबल होता है। आज़ादी के आंदोलन में सत्यनिष्ठा का परिचय कई नेताओं ने दिया, जिनमें एक उदाहरण लाला लाजपत राय हैं जिन्होंने कहा, “यदि मेरी आवाज दबाने का प्रयास किया जाएगा तो सत्य की प्रत्येक बूंद से नए सेनानी जन्म लेंगे।” यानी सत्य को दबाया नहीं जा सकता, वह नित नया प्रस्फुटित होगा।

इतिहास में अन्य उदाहरण भी उल्लेखनीय हैं जहाँ सत्य ने अंततः अपना स्थान पाया। दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला ने दशकों तक रंगभेद का विरोध किया – उनकी जीत इसी सत्य की जीत थी कि इंसानों के अधिकार रंग-भेद से परे हैं। यूरोप में चर्च द्वारा प्रायोजित भू-केंद्रित (ज्योतिष) मान्यताओं को वैज्ञानिक गैलीलियो ने जब सौरमंडल के सत्य से चुनौती दी, तब शुरू में उस सत्य को दबाया गया; पर अंततः वैज्ञानिक सत्य की ही स्थापना हुई कि पृथ्वी सूरज के चारों ओर घूमती है। कुल मिलाकर, इतिहास बताता है कि तत्कालीन शक्तिशाली मत या पूर्वाग्रह भले अस्थायी तौर पर सत्य को ढक दें, पर सत्य स्थायी होता है और किसी भी भेदभावकारी रंग में स्थायी रूप से नहीं रंगा जा सकता।

सामाजिक प्रभाव

सत्य की निष्पक्षता का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अगर समाज में सत्य के साथ रंग-भेद या पक्षपात जुड़ जाए, तो सामाजिक ताना-बाना टूट सकता है। उदाहरण के लिए, अगर न्याय व्यवस्था या प्रशासन जाति, धर्म या धन के आधार पर तथ्यों को तोड़े-मरोड़े, तो आम जनता का व्यवस्था से विश्वास उठ जाएगा और अराजकता बढ़ेगी। इसलिए सामाजिक स्थिरता के लिए जरूरी है कि सत्य सबके लिए समान हो और नियमों का पालन सब पर समान रूप से हो। भारतीय समाज में लंबे समय तक जाति-व्यवस्था ने ऐसे कई “सत्य” गढ़ लिए थे जो भेदभावपूर्ण थे (जैसे यह मिथ कि कुछ जातियाँ जन्म से ही श्रेष्ठ या कुछ अछूत हैं)। सामाजिक सुधारकों – राजा राममोहन राय, ज्योतिबा फुले, डॉ. अंबेडकर आदि – ने इन असत्य और अन्यायपूर्ण धारणाओं को चुनौती दी। डॉ भीमराव अंबेडकर ने तो यहां तक कहा कि “मनुष्य मनुष्य के बीच असमानता एक निराधार मिथक है, और समाज का धर्म समानता पर ही आधारित होना चाहिए।” भारतीय संविधान के प्रस्तावना में निहित “सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय” तथा “समानता और बंधुत्व” के मूल्य उसी सत्य को स्थापित करते हैं कि समाज में किसी के साथ रंग, जाति, धर्म, लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए।

समाज में समानता लाने वाली नीतियाँ भी इस सिद्धांत पर चलती हैं कि सत्य सबके लिए बराबर है। उदाहरण के तौर पर, मध्याह्न भोजन योजना (मिड-डे मील) भारत में शुरू की गई ताकि सभी सरकारी स्कूलों में बच्चे एकसाथ बैठकर भोजन करें और जाति-धर्म का भेद मिटे। इसने करोड़ों ग़रीब बच्चों को पोषण दिया ही, साथ ही विद्यालयों में सबको एक बराबर मानने की संस्कृति को बढ़ावा दिया – यानी भोजन का अधिकार किसी रंग या पहचान को नहीं देखता। इसी तरह शिक्षा का अधिकार (RTE) क़ानून 2009 में लागू हुआ, जिससे 6-14 वर्ष आयु के सभी बच्चों के लिए शिक्षा एक मूल अधिकार बनी। यह इस सत्य पर आधारित है कि ज्ञान प्राप्ति का अधिकार सभी को है, चाहे वह किसी भी समुदाय या आर्थिक पृष्ठभूमि का हो। इन सामाजिक पहलों ने दिखाया है कि यदि नीतियाँ निष्पक्ष सत्य को आधार बनाकर बनें (बिना किसी पूर्वाग्रह के), तो समाज में समावेशिता और समानता को बढ़ावा मिलता है।

सत्य का “बेरंग” होना सामाजिक सौहार्द का भी आधार है। उदाहरणस्वरूप, कई बार अफ़वाहें या मिथ्या समाचार समाज में वैमनस्य फैलाते हैं – ये “रंगी हुई असत्य कहानियाँ” होती हैं जिन्हें किसी न किसी पक्ष द्वारा अपने हित में फैलाया जाता है। जब तक वस्तुस्थिति (सत्य) सामने नहीं आती, तब तक लोग भड़क जाते हैं। 2013 के मुज़फ़्फ़रनगर दंगों में एक फेक वीडियो ने सांप्रदायिक तनाव भड़का दिया था; बाद में पता चला वह किसी और जगह की घटना थी जिसका सांप्रदायिक रंग देकर प्रसारित किया गया। इससे सबक मिलता है कि सच को तोड़-मरोड़ कर पेश करना (यानी सच को रंग देना) समाज में गंभीर हिंसा और अविश्वास पैदा कर सकता है। इसके विपरीत, यदि मीडिया और प्रशासन तथ्यात्मक सत्य को बिना रंग के पेश करें, तो गलतफ़हमियाँ दूर होंगी और विभिन्न समुदायों में विश्वास बहाल रहेगा।

समसामयिक उदाहरण

वर्तमान युग में “सत्य कोई रंग नहीं जानता” की प्रासंगिकता और बढ़ गई है, क्योंकि आज दुनिया पहले से कहीं ज्यादा परस्पर जुड़ी हुई है। वैश्विक चुनौतियाँ सबके सामने समान रूप से खड़ी हैं, और उनका सत्य किसी भौगोलिक या राजनीतिक रंग में बंधा नहीं है। उदाहरण के लिए, जलवायु परिवर्तन का वैज्ञानिक सत्य पूरी मानवता पर लागू होता है – ग्रीनलैंड की बर्फ पिघलने या समुद्र-स्तर बढ़ने पर हर देश प्रभावित होगा, चाहे वह धनी हो या निर्धन। कार्बन उत्सर्जन के आँकड़े स्पष्ट करते हैं कि पर्यावरण संकट किसी एक राष्ट्र या नस्ल के लोगों तक सीमित नहीं रहेगा; प्रकृति का यह सच रंग-रेखाओं से परे है। यही कारण है कि 2015 का पेरिस जलवायु समझौता लगभग सभी देशों ने मिलकर किया – क्योंकि सच सबके लिए एक था कि ग्लोबल वार्मिंग को रोकना आवश्यक है।

इसी प्रकार, कोविड-19 महामारी ने पूरी दुनिया को सबक दिया कि वायरस को कोई फर्क नहीं पड़ता आप किस देश, जाति या धर्म के हैं – सभी लोग इसकी चपेट में आए। एक ओर यह जैविक सत्य उभर कर आया कि विषाणु और वैक्सीन किसी सीमा या रंग को नहीं पहचानते; दूसरी ओर यह भी उजागर हुआ कि जहाँ-जहाँ नेताओं या समाज ने इस महामारी को राजनीतिक/सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की, वहाँ नुकसान ज्यादा हुआ। उदाहरण के लिए, शुरुआत में कुछ जगह कोरोना को लेकर धार्मिक अल्पसंख्यकों पर आरोप लगाए गए, तो कहीं इसे “चीन वायरस” कहकर नस्ली रंग दिया गया – पर अंततः वायरस ने सिद्ध किया कि बीमारी सबको समान रूप से संक्रमित करती है और उपचार व बचाव का वैज्ञानिक सत्य सभी को एकजैसा अपनाना होगा। वैक्सीन सभी देशों ने हर समुदाय को लगाए; अंतरराष्ट्रीय सहयोग से टीके बने, क्योंकि इस सच्चाई को सबने समझा कि महामारी का कोई पसंदीदा रंग या धर्म नहीं।

आज के अनेक संकट और संघर्ष भी याद दिलाते हैं कि सत्य निष्पक्ष होता है। रूस-यूक्रेन युद्ध हो या इस्राइल-हमास का संघर्ष, प्रत्येक पक्ष अपनी-अपनी “सचाई” प्रस्तुत करता है और भारी मात्रा में दुष्प्रचार (प्रोपगैंडा) फैलाया जाता है। लेकिन इन सबके बीच एक निर्विवाद सत्य सब देख सकते हैं – वह है मानव पीड़ा और जान-माल की हानि, जो हर पक्ष में हो रही है। युद्ध का दर्द किसी एक राष्ट्र या समुदाय तक सीमित नहीं; निर्दोष लोग मरते हैं, शरणार्थी संकट बढ़ता है – यह सत्य है जिसे कोई राष्ट्रवादी या धार्मिक रंग भी झुठला नहीं सकता। अतः “सत्य कोई रंग नहीं जानता” का आशय यहाँ यह भी है कि मानवीय पीड़ा की सच्चाई को पहचानकर निष्पक्ष रूप से शांति और मानवता के पक्ष में खड़ा होना चाहिए, न कि पक्षपातपूर्ण रवैया रखना चाहिए।

भारतीय लोकतंत्र में मीडिया और तकनीक के संदर्भ में भी यह विषय समसामयिक है। हम “पोस्ट-ट्रुथ” के दौर की बात करते हैं जहाँ भावनाएँ तथ्यों से ज्यादा असर डालती हैं। सोशल मीडिया पर फर्जी खबरों, डीपफेक वीडियो और ट्रोल आर्मी द्वारा अक्सर सत्य को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है। यह सत्य के “रंगीन चश्मे” का ही आधुनिक रूप है, जहाँ राजनीतिक विचारधारा या आर्थिक स्वार्थ के अनुसार सूचनाओं को घुमा दिया जाता है। ऐसे में आम नागरिक के लिए यह चुनौतिपूर्ण है कि वह वास्तविक निष्पक्ष सत्य पहचाने। अच्छी बात यह है कि आज फैक्ट-चेकिंग तंत्र, स्वतंत्र मीडिया और जागरूक नागरिक मिलकर इन रंगे गए झूठ का पर्दाफाश कर रहे हैं। उदाहरणस्वरूप, भारत में हाल ही में कई भ्रामक दावों (जैसे वैक्सीन के बारे में अफ़वाहें, चुनाव के समय फेक न्यूज़) को तथ्य-जांचकर्ताओं ने बेनकाब किया। यह पहल “सत्य को बिना रंग के उजागर” करने की दिशा में ही है।

सत्य के मार्ग में चुनौतियाँ

यद्यपि आदर्श रूप में सत्य निष्पक्ष और बेदाग़ होता है, फिर भी वास्तविक दुनिया में सत्य को कायम रखना आसान नहीं। सत्य के मार्ग में सबसे बड़ी चुनौती मानवीय पूर्वाग्रह हैं। लोग कभी-कभी अपनी सामाजिक स्थिति, शक्ति या लाभ के अनुसार सत्य को ढालने लगते हैं। इतिहास में अधिनायकवादी सरकारों ने बड़े पैमाने पर प्रचार तंत्र चलाकर झूठ को कुछ समय के लिए “सत्य” का रूप दे दिया था – जैसे नाज़ी जर्मनी में हिटलर के मंत्रिमंडल ने यहूदी विरोधी झूठ फैलाकर जनता को बरगलाया, या सोवियत रूस में स्टालिन ने सत्य छिपाने हेतु कड़ी सेंसरशिप लगाई। यही प्रवृत्ति आज भी कई रूपों में दिखती है जब सत्ताधारी या शक्तिशाली लोग मीडिया एवं इंटरनेट के जरिये मनगढ़ंत नैरेटिव गढ़ते हैं। दूसरी चुनौती सामाजिक पूर्वाग्रह हैं – जाति, नस्ल, लिंग को लेकर गहरी धारणाएँ लोगों को सत्य की सार्वभौमिकता स्वीकार नहीं करने देतीं। भले ही हमारे संविधान और क़ानून समानता का संदेश देते हैं, लेकिन वास्तविकता में कई स्थानों पर भेदभाव जारी है क्योंकि कुछ लोग पुराने संकीर्ण विश्वास नहीं छोड़ना चाहते।

इन चुनौतियों से निपटने के लिए शिक्षा और नैतिक जागरूकता ज़रूरी है। नैतिक शिक्षा व्यक्ति को सिखाती है कि सत्य खुद में मूल्यवान है और उसे किसी भय या लालच से तोड़ना नहीं चाहिए। साथ ही, क़ानूनी व्यवस्था को भी मज़बूत बनाने की आवश्यकता होती है ताकि जो लोग जानबूझकर असत्य फैलाकर समाज को हानि पहुँचाते हैं, उन्हें दंड मिले। प्रौद्योगिकी के युग में एल्गोरिदम और आर्टिफ़िशल इंटेलिजेंस के माध्यम से भी सच-झूठ का अलगाव करना अहम हो गया है। उदाहरण के लिए, सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्मों ने हाल में कुछ कदम उठाए हैं जिनसे फ़र्जी सूचनाओं पर चेतावनी लगाई जाती है या उन्हें हटाया जाता है। यह सब सत्य को उसके निष्पक्ष स्वरूप में बनाए रखने के प्रयास हैं। हालाँकि, अंतिम लड़ाई प्रत्येक व्यक्ति के भीतर होती है – क्या हम अपने मन के रंगीन चश्मों को उतारकर सच को जैसा है, वैसा देखने को तैयार हैं? जब तक इंसान अपनी पक्षपातपूर्ण दृष्टि से ऊपर नहीं उठेगा, सत्य को बेरंग बनाए रखना कठिन रहेगा।

निष्कर्ष

आखिरकार, “सत्य कोई रंग नहीं जानता है” केवल एक उक्ति नहीं, बल्कि मानवीय सभ्यता के नैतिक विकास की दिशा है। यह कथन हमें याद दिलाता है कि सत्य की प्रकृति निष्पक्ष और समावेशी है। सत्य को न जाति, धर्म, रंगभेद से बाँधा जा सकता है, न ही अमीरी-गरीबी या शक्ति के तराज़ू से तोला जा सकता है। सत्य अपने आप में शुद्ध प्रकाश की तरह है – प्रकाश जब चमकता है तो सब पर समान रूप से पड़ता है, वह भेदभाव नहीं करता। इसी प्रकार सत्य भी अंततः उजागर होता है तो सबके हित में होता है, चाहे शुरुआती दौर में कुछ को अप्रिय लगे। न्याय, समानता, मानवाधिकार, विज्ञान, सभी के मूल में सत्य का यही उज्ज्वल स्वरूप है जो किसी “रंग” से प्रभावित नहीं होता।

भारतीय राष्ट्र के प्रतीकचिन्ह पर अंकित “सत्यमेव जयते” हमारा मार्गदर्शन करता है कि सत्य की विजय अवश्यंभावी है। अतः एक समाज और देश के रूप में हमारी जिम्मेदारी है कि हम सत्य के प्रति निष्ठावान रहें, अपने पूर्वाग्रहों को त्यागकर तथ्यों एवं सत्य को स्वीकारें। निस्संदेह, रास्ते में चुनौतियाँ आएंगी – कभी निजी स्वार्थ, कभी सामूहिक पूर्वाग्रह – जो सत्य पर आवरण डालने की कोशिश करेंगे। लेकिन यदि हम विवेक, संविधान और मानवीय मूल्यों को अपना मार्गदर्शक मानें, तो इन आवरणों को हटाकर सत्य के निष्पक्ष आलोक को कायम रख सकते हैं। सत्य की निष्पक्षता से ही न्यायपूर्ण, समतामूलक और शांतिपूर्ण समाज का निर्माण संभव है। इसीलिए, सत्य को कोई रंग न देने देना ही प्रत्येक पीढ़ी का पुनीत कर्तव्य है, क्योंकि अंत में रंगहीन सत्य की ही विजय होती है

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