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Nirman ias Current Affairs 9 September 2025

Topic : जम्मू–कश्मीर की राज्यसभा सीटों का विवाद     चर्चा में क्यों : हाल ही में केंद्र के कानून और न्याय मंत्रालय ने चुनाव आयोग (EC) के उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया है जिसमें जम्मू-कश्मीर (J&K) की चार राज्यसभा सीटों की अवधि को क्रमबद्ध (staggered) करने के लिए राष्ट्रपति आदेश जारी करने की सिफारिश की गई थी।  इस फैसले के कारण 2021 से जम्मू-कश्मीर की कोई भी प्रतिनिधित्व राज्यसभा में नहीं है। UPSC पाठ्यक्रम:  प्रारंभिक परीक्षा: भारतीय राजनीति और शासन – संविधान, राजनीतिक व्यवस्था, पंचायती राज, सार्वजनिक नीति, अधिकार मुद्दे मुख्य परीक्षा: GS-II: संघ और राज्यों के कार्य और जिम्मेदारियाँ, संघीय ढांचे से संबंधित मुद्दे और चुनौतियाँ, स्थानीय स्तर तक शक्तियों और वित्त का हस्तांतरण और उसमें चुनौतियाँ।      पृष्ठभूमि 1. अनुच्छेद 370 और राज्य का पुनर्गठन संविधान का अनुच्छेद 370 जम्मू–कश्मीर को विशेष दर्जा प्रदान करता था।  इस प्रावधान के अंतर्गत राज्य की अपनी विधानसभा और संविधान था, जिसके आधार पर राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव किया जाता था। 5 अगस्त 2019 को भारत सरकार ने इस विशेष दर्जे को समाप्त कर दिया और जम्मू–कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 लागू किया। इसके परिणामस्वरूप राज्य को दो केंद्रशासित प्रदेशों में विभाजित किया गया: जम्मू–कश्मीर (विधानसभा सहित) लद्दाख (बिना विधानसभा) इस पुनर्गठन के बाद जम्मू–कश्मीर को राज्यसभा में चार सीटों का प्रतिनिधित्व मिला, जबकि लद्दाख को कोई सीट आवंटित नहीं हुई।  2. राज्यसभा सीटों का संवैधानिक प्रावधान (अनुच्छेद 80) भारतीय संविधान का अनुच्छेद 80 राज्यसभा की संरचना और सदस्यों की संख्या को परिभाषित करता है। राज्यसभा के सदस्य दो प्रकार से चुने जाते हैं: राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों से निर्वाचित सदस्य – इनका चुनाव संबंधित राज्य या केंद्रशासित प्रदेश की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य करते हैं। राष्ट्रपति द्वारा नामित सदस्य – कला, साहित्य, विज्ञान और समाजसेवा जैसे क्षेत्रों से। संविधान के अनुसार प्रत्येक राज्य को जनसंख्या के आधार पर सीटें दी जाती हैं। पुनर्गठन अधिनियम, 2019 के बाद जम्मू–कश्मीर को चार सीटें प्रदान की गईं। 3. जम्मू–कश्मीर के विशेष दर्जे के बाद सीटों की स्थिति अनुच्छेद 370 के हटने से पहले जम्मू–कश्मीर के राज्यसभा सांसद राज्य की विधान सभा द्वारा चुने जाते थे। 2019 में पुनर्गठन के बाद विधानसभा भंग कर दी गई और वहाँ राष्ट्रपति शासन लागू हुआ। इसी दौरान, 2021 में चारों राज्यसभा सदस्यों का कार्यकाल समाप्त हो गया। चूँकि उस समय नई विधानसभा मौजूद नहीं थी, इसलिए नए सदस्यों का चुनाव संभव नहीं हुआ। यद्यपि सितंबर–अक्टूबर 2024 में विधानसभा चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं, फिर भी अब तक राज्यसभा चुनाव नहीं कराए गए हैं। इसके कारण जम्मू–कश्मीर पिछले चार वर्षों से राज्यसभा में पूरी तरह से प्रतिनिधित्व विहीन बना हुआ है।   जम्मू–कश्मीर की राज्यसभा सीटों पर हालिया विवाद और संवैधानिक पहलू हालिया विवाद (Recent Developments) 1. कानून मंत्रालय और चुनाव आयोग के बीच मतभेद चुनाव आयोग ने वर्ष 2025 में यह सुझाव दिया कि जम्मू–कश्मीर की चार राज्यसभा सीटों के कार्यकाल को क्रमबद्ध (staggered) करने के लिए राष्ट्रपति आदेश जारी किया जाए, ताकि सभी सीटें एक साथ रिक्त न हों।  लेकिन कानून और न्याय मंत्रालय ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और कहा कि वर्तमान कानून, विशेषकर जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (Representation of People Act, 1951) में इस प्रकार के आदेश का कोई प्रावधान मौजूद नहीं है।  मंत्रालय का यह भी कहना था कि यदि ऐसा करना है तो संसद को विधायी संशोधन करना होगा और यह प्रावधान केवल जम्मू–कश्मीर के लिए नहीं बल्कि उन सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के लिए लागू होना चाहिए जिनकी राज्यसभा सीटों का कार्यकाल एक साथ समाप्त होता है।  2. राज्यसभा चुनावों की प्रक्रिया और जम्मू–कश्मीर की विशेष परिस्थिति राज्यसभा के चुनाव अनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली (Proportional Representation by means of Single Transferable Vote) के आधार पर होते हैं, जिसमें संबंधित राज्य या केंद्रशासित प्रदेश की विधान सभा के निर्वाचित सदस्य मतदान करते हैं।  जम्मू–कश्मीर में वर्ष 2019 में पुनर्गठन अधिनियम लागू होने के बाद विधानसभा भंग कर दी गई और राष्ट्रपति शासन लागू हो गया।  इस अवधि में वर्ष 2021 में चारों राज्यसभा सदस्यों का कार्यकाल समाप्त हो गया और नई विधानसभा के अभाव में चुनाव नहीं हो सका।  सितंबर–अक्टूबर 2024 में विधानसभा चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं, लेकिन अब तक राज्यसभा चुनाव नहीं कराए गए हैं।  इस कारण जम्मू–कश्मीर पिछले चार वर्षों से राज्यसभा में प्रतिनिधित्व से वंचित है।  संवैधानिक और कानूनी पहलू   1. अनुच्छेद 324 – चुनाव आयोग की स्वतंत्रता भारतीय संविधान का अनुच्छेद 324 चुनाव आयोग को स्वतंत्र रूप से चुनाव कराने की शक्ति प्रदान करता है।  इस अनुच्छेद में स्पष्ट किया गया है कि चुनाव आयोग संसद और राज्य विधानसभाओं के चुनावों की देखरेख, निर्देशन और नियंत्रण करेगा।  हालांकि, जब चुनावी प्रक्रिया किसी विशेष कानून, जैसे कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 द्वारा सीमित हो जाती है, तब चुनाव आयोग अपने अधिकार का उपयोग केवल उसी दायरे में कर सकता है। यही कारण है कि जम्मू–कश्मीर के मामले में चुनाव आयोग को राष्ट्रपति आदेश की आवश्यकता पड़ी, जिसे कानून मंत्रालय ने अस्वीकार कर दिया।  2. अनुच्छेद 80(4) और राज्यसभा चुनाव भारतीय संविधान का अनुच्छेद 80(4) यह प्रावधान करता है कि राज्यसभा के सदस्य राज्य की विधान सभा के निर्वाचित सदस्यों द्वारा चुने जाएंगे।  इसका अर्थ यह है कि जब तक विधानसभा अस्तित्व में नहीं होगी, तब तक राज्यसभा चुनाव संभव नहीं हो सकते।  जम्मू–कश्मीर के मामले में यह स्थिति वर्ष 2019 से 2024 तक बनी रही, जिसके कारण राज्यसभा चुनाव टल गए और क्षेत्र राज्यसभा में प्रतिनिधित्व से वंचित हो गया।  3. सुप्रीम कोर्ट और संविधान पीठ के प्रासंगिक निर्णय केशवानंद भारती बनाम राज्य केरल (1973): इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है। एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994): इस फैसले में अदालत ने स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति शासन केवल अस्थायी उपाय है और लोकतांत्रिक संस्थाओं की बहाली शीघ्र की जानी चाहिए। जम्मू–कश्मीर पुनर्गठन से संबंधित याचिकाएँ (2020–2023): संविधान पीठ ने यह माना कि संसद के पास पुनर्गठन करने का अधिकार है, किंतु लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व को लंबे समय तक बाधित करना संविधान की भावना के विपरीत है। जम्मू–कश्मीर की राज्यसभा सीटों पर विवाद के प्रमुख मुद्दे (Key Issues) 1. प्रतिनिधित्व का अभाव और लोकतांत्रिक घाटा जम्मू–कश्मीर की चार राज्यसभा सीटें 2021 से रिक्त हैं, जिसके कारण इस केंद्रशासित

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2 September 2025 Current Affairs

  Topic : भारत का कैंसर मैप: एक विश्लेषण     चर्चा में क्यों :  विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, “वर्तमान में 30% से 50% कैंसर को जोखिम कारकों से बचाव और प्रभावी रोकथाम रणनीतियों के माध्यम से रोका जा सकता है।” भारत में कैंसर की व्यापकता पर आधारित एक हालिया रिपोर्ट से यह सामने आया है कि कैंसर एक गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौती बन चुका है, जिसमें क्षेत्रीय असमानताएं और सामाजिक-आर्थिक कारण प्रमुख भूमिका निभाते हैं। UPSC पाठ्यक्रम: प्रारंभिक परीक्षा: राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय महत्व की समसामयिक घटनाएँ। मुख्य परीक्षा: सामान्य अध्ययन II, III: स्वास्थ्य, विज्ञान और प्रौद्योगिकी से संबंधित सामाजिक क्षेत्र/सेवाओं के विकास और प्रबंधन से संबंधित मुद्दे- विकास और उनके अनुप्रयोग पृष्ठभूमि भारत में कैंसर की निगरानी के लिए ICMR–नेशनल सेंटर फॉर डिज़ीज़ इन्फ़ॉर्मेटिक्स एंड रिसर्च (NCDIR) द्वारा कैंसर रजिस्ट्री कार्यक्रम संचालित किया जाता है।  इस कार्यक्रम की शुरुआत वर्ष 1981 में की गई थी और इसका उद्देश्य कैंसर की घटनाओं, मृत्यु दर और उपचार की सफलता का आकलन करना है। संविधान के अनुसार जन स्वास्थ्य राज्य सूची का विषय है, किंतु अनुच्छेद 47 के अंतर्गत राज्य को पोषण और जनस्वास्थ्य सुधार की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है।  अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट ने स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार माना है।  इस प्रकार कैंसर नियंत्रण केंद्र और राज्यों के बीच सहयोगात्मक संघवाद (Cooperative Federalism) का विषय है। 1. भारत में कैंसर का मौजूदा परिदृश्य भारत में कैंसर के मामलों पर आधारित 43 कैंसर रजिस्ट्री के विश्लेषण से यह सामने आया है कि किसी व्यक्ति के जीवनकाल में कैंसर विकसित होने का जोखिम लगभग 11 प्रतिशत है।  वर्ष 2024 में अनुमानित 15.6 लाख नए कैंसर मामलों और लगभग 8.74 लाख मौतों की सूचना दर्ज की गई।  ये रजिस्ट्री देश की 10 से 18 प्रतिशत आबादी को कवर करती हैं और 23 राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों में संचालित होती हैं। 2. 2015–2019 का कैंसर डेटा और रुझान साल 2015 से 2019 के बीच एकत्र किए गए आंकड़ों में लगभग 7.08 लाख कैंसर मामलों और 2.06 लाख मौतों को दर्ज किया गया।  इस अध्ययन को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) दिल्ली, टाटा मेमोरियल और अड्यार कैंसर संस्थान जैसे प्रमुख शोध संस्थानों के विशेषज्ञों ने पूरा किया।  कोविड-19 महामारी के प्रभाव के कारण वर्ष 2020 के आंकड़े इसमें शामिल नहीं किए गए। 3. लिंग आधारित असमानताएँ भारत में महिलाओं में कैंसर के 51.1 प्रतिशत मामले दर्ज किए गए, लेकिन मौतों का प्रतिशत केवल 45 रहा।  इसका कारण यह है कि महिलाओं में पाए जाने वाले प्रमुख कैंसर जैसे स्तन और गर्भाशय ग्रीवा का कैंसर आसानी से पहचाने और इलाज किए जा सकते हैं।  इसके विपरीत पुरुषों में सामान्य कैंसर जैसे फेफड़े और पेट का कैंसर देर से पकड़ में आते हैं और इनका परिणाम अपेक्षाकृत अधिक घातक होता है। 4. पुरुषों में मुँह का कैंसर पुरुषों में अब मुँह का कैंसर सबसे सामान्य कैंसर बन चुका है।  यह फेफड़ों के कैंसर से भी अधिक पाया जा रहा है। तम्बाकू सेवन में कमी (2009–10 में 34.6% से घटकर 2016–17 में 28.6% तक) आने के बावजूद मुँह के कैंसर में वृद्धि देखी जा रही है।  इसका कारण तम्बाकू के प्रभाव का लंबी अवधि में सामने आना और शराब जैसे अन्य जोखिम कारक हैं। 5. पूर्वोत्तर भारत : कैंसर का हॉटस्पॉट पूर्वोत्तर भारत, विशेषकर मिज़ोरम, देश का कैंसर हॉटस्पॉट है।  यहाँ पुरुषों में जीवनकाल का जोखिम 21.1 प्रतिशत और महिलाओं में 18.9 प्रतिशत तक दर्ज किया गया है।  इसके पीछे उच्च तम्बाकू सेवन, अस्वस्थ आहार (फर्मेंटेड मांस, धूम्रित भोजन, अत्यधिक मसाले और गर्म पेय) तथा मानव पैपिलोमा वायरस (HPV), Helicobacter pylori और हेपेटाइटिस जैसी संक्रामक बीमारियों की अधिकता जिम्मेदार है। 6. कैंसर का भौगोलिक वितरण कैंसर का वितरण भारत के विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न प्रकार से दिखाई देता है। हैदराबाद में स्तन कैंसर की दर सबसे अधिक 54 प्रति 1,00,000 है। ऐज़ॉल में गर्भाशय ग्रीवा का कैंसर 27.1 प्रति 1,00,000 पर सबसे अधिक है। श्रीनगर में पुरुषों में फेफड़ों का कैंसर 39.5 प्रति 1,00,000 पाया गया जबकि महिलाओं में ऐज़ॉल में इसकी दर 33.7 है। अहमदाबाद में पुरुषों में मुँह का कैंसर सबसे अधिक 33.6 है, जबकि महिलाओं में ईस्ट खासी हिल्स में यह दर 13.6 पाई गई। श्रीनगर में प्रोस्टेट कैंसर की दर 12.7 प्रति 1,00,000 दर्ज की गई। कैंसर क्या है? कैंसर बीमारियों का एक व्यापक समूह है,जो शरीर में कोशिकाओं के अनियंत्रित विकास और विभाजन के कारण होने वाली बीमारी है।  यह तब होता है जब सामान्य कोशिकाओं के DNA में उत्परिवर्तन होता है, जिससे अनियंत्रित कोशिका विभाजन होता है।   कैंसर के 100 से अधिक प्रकार हैं, और वे शरीर के लगभग किसी भी भाग में हो सकते हैं। ट्यूमर: कैंसर कोशिकाओं का एक समूह ट्यूमर बना सकता है, जो सौम्य (गैर-कैंसरयुक्त) या घातक (कैंसरयुक्त) हो सकता है। मेटास्टेसिस: घातक ट्यूमर मूल स्थान से शरीर के अन्य क्षेत्रों में फैल सकता है। कैंसर के प्राथमिक कारण कैंसर के विकास में कई जोखिम कारक योगदान करते हैं, लेकिन सटीक कारण अक्सर अज्ञात रहता है। कुछ प्राथमिक कारणों में शामिल हैं: तम्बाकू का उपयोग: धूम्रपान सबसे महत्वपूर्ण जोखिम कारक है, विशेष रूप से फेफड़े, मुँह, गले और एसोफैजियल कैंसर के लिए। रेडिएशन एक्सपोजर:  एक्स-रे, रेडॉन गैस और पराबैंगनी किरणों के संपर्क में आना शामिल है, जो DNA  को नुकसान पहुंचा सकते हैं। संक्रमण: मानव पेपिलोमावायरस (HPV) और हेपेटाइटिस B और C जैसे वायरस गर्भाशय ग्रीवा और यकृत कैंसर जैसे कैंसर का कारण बन सकते हैं। आनुवंशिकी: विरासत में मिली आनुवंशिक उत्परिवर्तन, जैसे कि BRCA1 और BRCA2 जीन, स्तन और डिम्बग्रंथि के कैंसर के जोखिम को बढ़ाते हैं। पर्यावरणीय कारक: रसायनों (एस्बेस्टस, बेंजीन) और प्रदूषकों के संपर्क में आने से कैंसर हो सकता है। जीवनशैली कारक: खराब आहार, शारीरिक निष्क्रियता, शराब का सेवन और मोटापा कई प्रकार के कैंसर से जुड़े हैं। आयु: मस्तिष्क ट्यूमर वृद्ध वयस्कों में अधिक आम है, लेकिन यह किसी भी उम्र में हो सकता है। कुछ प्रकार, जैसे मेडुलोब्लास्टोमा, बच्चों में अधिक आम हैं। ब्रेन कैंसर के बारे में         ब्रेन कैंसर का मतलब है मस्तिष्क में असामान्य कोशिकाओं की अनियंत्रित वृद्धि, जिससे ट्यूमर का निर्माण होता है।  ये ट्यूमर या तो प्राथमिक (मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाले) या द्वितीयक (मेटास्टेटिक, शरीर के अन्य भागों से फैलने वाले) हो सकते हैं।  प्राथमिक ब्रेन कैंसर मस्तिष्क की

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मिनिकॉय द्वीप : 27 August Current Affairs

 मिनिकॉय द्वीप  चर्चा में क्यों 25–26 अगस्त 2025 को लक्षद्वीप के मिनिकॉय द्वीप पर खुले मैदान में जमा कचरे में आग लग गई।  मिनिकॉय द्वीप के बारे में मिनिकॉय, जिसे स्थानीय रूप से मालिकु (Maliku) कहा जाता है, लक्षद्वीप का दूसरा सबसे बड़ा और सबसे दक्षिणी द्वीप है।  इसका आकार अर्धचंद्राकार (crescent-shaped) माना जाता है, और यही विशिष्ट आकृति इसे द्वीपीय भू-आकृति के दृष्टि से अलग पहचान देती है।  द्वीप का कुल भू-क्षेत्रफल लगभग 4.80 वर्ग किलोमीटर दर्ज है। भौगोलिक स्थिति मिनिकॉय नौ-डिग्री चैनल (9° Channel) के पास स्थित है, जो विश्व के व्यस्ततम समुद्री मार्गों में से एक माना जाता है।  यह द्वीप मालदीव के उत्तरीतम द्वीप से लगभग 130 किलोमीटर की दूरी पर और कोच्चि से लगभग 398 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम दिशा में स्थित है, जिसके कारण इसका सामरिक तथा समुद्री परिवहन महत्त्व और बढ़ जाता है।   लैगून व स्थलाकृति द्वीप के पश्चिमी भाग में विशाल लैगून स्थित है, जिसकी अधिकतम चौड़ाई लगभग 6 किलोमीटर तक बताई जाती है।  इस लैगून में दो प्रवेशद्वार एक पश्चिमी ओर और दूसरा उत्तरी छोर पर निर्धारित हैं, तथा लैगून का क्षेत्रफल लगभग 30.60 वर्ग किलोमीटर माना जाता है।  मिनिकॉय की लंबाई लगभग 11 किलोमीटर है, जबकि समुद्र-तल से ऊँचाई पश्चिम की ओर करीब 2 मीटर और पूर्वी हिस्से में लगभग 3–4 मीटर तक आँकी गई है। ऐतिहासिक धरोहर मिनिकॉय का ऐतिहासिक लाइटहाउस (प्रकाश-स्तंभ) भारत के प्राचीन प्रकाश-स्तंभों में गिना जाता है।  इसका औपचारिक उद्घाटन 2 फ़रवरी 1885 को ब्रिटिश शासनकाल में किया गया था।  यह प्रकाश-स्तंभ आज भी समुद्री नौवहन के लिए एक महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शक चिह्न के रूप में कार्य करता है। सामाजिक संरचना मिनिकॉय के सुव्यवस्थित गाँव पारम्परिक रूप से “अवाह (Avah)” कहलाते हैं ।  प्रत्येक अवाह का नेतृत्व मूपन/बोडुकाका (Moopan/Bodukaka) के हाथों में होता है, जो सामुदायिक जीवन और निर्णय-प्रक्रिया का केंद्र होता है, और हर गाँव का अपना गाँव-घर (Village House) निर्धारित रहता है।  द्वीप पर कुल 10 गाँव सूचीबद्ध हैं— बादा, आउमागु, बोडुआथिरी, रममेदु, सेदिवालु, अलूदी, फुंहिलोल, कुदेही, फ़ालेस्सेरी और केंडिपार्टी—जिनकी ग्राम्य संरचना और समुदाय-केंद्रित व्यवस्थाएँ मिनिकॉय की विशिष्ट सामाजिक पहचान को दर्शाती हैं। भाषा-परिदृश्य लक्षद्वीप के अधिकांश द्वीपों में जहाँ मलयालम प्रमुखतः बोली जाती है, वहीं मिनिकॉय में “महाल/धिवेही (Mahl/Dhivehi)” भाषा प्रचलित है।  धिवेही थाना (Thaana) लिपि में लिखी जाती है। मिनिकॉय भारत का एकमात्र ऐसा समुदाय माना जाता है जहाँ महल/धिवेही भाषा स्थानीय बोलचाल और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम है, जबकि हिंदी और अंग्रेज़ी का प्रयोग भी प्रशासनिक एवं शैक्षिक संदर्भों में देखा जाता है। लोक-संस्कृति मिनिकॉय की सांस्कृतिक पहचान उसके लोक-नृत्यों और समुद्री परम्पराओं से सजीव रूप में सामने आती है।  यहाँ के प्रमुख नृत्य लावा (Lava), थाारा/थारा (Thaara), डंडी (Dandi), फुली (Fuli) और बंडिया (Bandiya) माने जाते हैं।  द्वीप की पारम्परिक जाहधोनी (Jahadhoni) नावें—अतिथि-स्वागत, उत्सवों और द्वीपीय पिकनिक के अवसरों पर स्थानीय जीवन-पद्धति और समुद्री संस्कृति का सौंदर्यपूर्ण प्रतीक प्रस्तुत करती हैं। ===================================  प्रश्न :मिनिकॉय द्वीप के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए : यह लक्षद्वीप का दूसरा सबसे बड़ा और सबसे दक्षिणी द्वीप है, जिसे स्थानीय रूप से “मालिकु” कहा जाता है। यहाँ पर प्रचलित स्थानीय भाषा मलयालम है, जबकि हिंदी और अंग्रेज़ी का प्रयोग नहीं किया जाता। इसका ऐतिहासिक लाइटहाउस, जो 1885 में ब्रिटिश शासनकाल में शुरू हुआ था, आज भी समुद्री नौवहन के लिए महत्त्वपूर्ण है। उपरोक्त में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं? A. केवल 1 और 2 B. केवल 2 और 3 C. केवल 1 और 3 D. 1, 2 और 3 सभी उत्तर : C. केवल 1 और 3  व्याख्या: कथन 1 सही है → मिनिकॉय लक्षद्वीप का दूसरा सबसे बड़ा तथा सबसे दक्षिणी द्वीप है, जिसे “मालिकु” कहा जाता है। कथन 2 गलत है → यहाँ पर महाल/धिवेही भाषा बोली जाती है, न कि मलयालम। साथ ही प्रशासनिक व शैक्षिक संदर्भों में हिंदी और अंग्रेज़ी का भी प्रयोग होता है। कथन 3 सही है → मिनिकॉय का लाइटहाउस (1885) ब्रिटिश काल में बना था और आज भी समुद्री नौवहन हेतु मार्गदर्शक चिह्न है।              

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UPSC ESSAY PAPER MODEL ANSWER 2025

सत्य कोई रंग नहीं जानता है। Truth knows no color.   1893 में दक्षिण अफ्रीका के पीटरमैरिट्ज़बर्ग में एक युवा मोहनदास गांधी को केवल उनकी त्वचा के रंग के कारण ट्रेन से उतार दिया गया था। उस एक घटना ने गांधी के जीवन की दिशा बदल दी और उन्हें मानव समता के सार्वभौमिक सत्य का बोध कराया। यह ऐतिहासिक प्रसंग दर्शाता है कि पूर्वाग्रह जहाँ विभाजन पैदा करते हैं, वहीं सत्य स्वयं किसी “रंग” – जाति, नस्ल या किसी भी भेद – को नहीं जानता। सरल शब्दों में “सत्य कोई रंग नहीं जानता है” का आशय है कि सत्य निष्पक्ष, सार्वभौमिक एवं सबके लिए समान होता है। सत्य की यह निष्पक्षता ही न्याय, समानता, नैतिकता जैसे अन्य मानवीय मूल्यों का आधार बनती है।  दार्शनिक दृष्टिकोण दार्शनिक रूप से सत्य की अवधारणा लगभग सभी सभ्यताओं में सर्वोच्च मूल्य के रूप में स्थापित रही है। प्राचीन भारतीय उपनिषदों में कहा गया है “सत्यमेव जयते” अर्थात सत्य की ही अंततः विजय होती है। सत्य को कालातीत और परम धर्म माना गया है। महात्मा गांधी ने सत्य को ईश्वर का रूप माना और अंततः निष्कर्ष दिया कि “सत्य ही ईश्वर है” – अर्थात सत्य से बढ़कर कोई आराध्य नहीं। इसी तरह पश्चिमी दर्शन में इमैनुएल कांट के नैतिक दर्शन (कर्तव्यवादी दर्शन) में कहा गया कि नैतिक नियम सार्वभौमिक होते हैं और इन पर किसी व्यक्ति-विशेष या परिस्थिति का रंग नहीं चढ़ना चाहिए। सत्य अपने आप में निरपेक्ष है, उसका कोई व्यक्तिगत या सामूहिक पक्षपातपूर्ण “वर्गीकरण” नहीं होता। लेकिन दार्शनिक चिंतन में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि यद्यपि अंतिम सत्य निष्पक्ष हो सकता है, practically मनुष्यों की सत्य तक पहुँच भिन्न हो सकती है। माइकल फूको जैसे विचारकों ने तर्क दिया कि समाज में जो कुछ “सत्य” माना जाता है, वह अक्सर सत्ता संरचनाओं द्वारा निर्धारित होता है। इसी प्रकार जर्मन दर्शनशास्त्री फ्रेडरिक नीत्शे ने कहा था, “यहाँ कोई तथ्य नहीं, केवल व्याख्याएँ हैं” – अर्थात अनेक बार सत्य को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा-परखा जाता है। उदाहरणार्थ, औपनिवेशिक शासकों ने भारत के शोषण को अपना “सभ्यता मिशन” कहकर प्रस्तुत किया, जो उनकी विकृत व्याख्या थी। इन दृष्टांतों से स्पष्ट होता है कि मानव मन अपने पूर्वाग्रहों या हितों के कारण सत्य को “रंगीन चश्मे” से देख सकता है। फिर भी, दार्शनिक आदर्श के रूप में सत्य किसी रंग-भेद को नहीं मानता – अंतिम सत्य सार्वभौमिक और निष्पक्ष ही रहेगा, भले ही उसकी प्राप्ति का मार्ग जटिल हो। कानूनी एवं संवैधानिक परिप्रेक्ष्य   चित्र: न्याय की देवी (Lady Justice) की एक प्रतिमा, जिसमें आँखे ढकी (पट्टीबंध) हैं और हाथों में तराज़ू व तलवार धारण किए हुए हैं। यह दृष्टांत दर्शाता है कि न्याय अंधा (निष्पक्ष) होता है और सत्य व न्याय का तराज़ू सभी के लिए समान रूप से तुला रहना चाहिए। वास्तव में, कानून के शासन में सत्य का कोई रंग नहीं होना चाहिए – कानून सभी व्यक्तियों के साथ समान बर्ताव करे, चाहे उनकी जाति, धर्म, लिंग, भाषा कुछ भी हो। इसी सिद्धांत को भारतीय संविधान में “न्याय और समता” के रूप में प्रतिपादित किया गया है। संविधान का अनुच्छेद 14 सभी व्यक्तियों को क़ानून के समक्ष समानता का अधिकार सुनिश्चित करता है। समान रूप से, अनुच्छेद 15 राज्य द्वारा केवल धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव निषिद्ध करता है। ये संवैधानिक प्रावधान इसी बात पर ज़ोर देते हैं कि न्यायिक सत्य किसी पूर्वाग्रह या “रंग” से प्रभावित नहीं होना चाहिए। कानूनी प्रक्रिया में भी सत्य की निष्पक्षता को संरक्षित रखने के प्रतीक मिलते हैं। न्यायालयों में गवाही से पहले गीता या धर्मग्रंथ को हाथ में लेकर सत्य बोलने की शपथ दिलाई जाती है, ताकि सत्य ही सामने आए। यदि कोई जानबूझकर झूठी गवाही दे, तो उसे कानून की दृष्टि में अपराध (कसम तोड़ना/झूठी गवाही) माना जाता है – यह सिद्धांत भी सत्य की पवित्रता स्थापित करता है। न्याय की देवी की आँखों पर पट्टी इसी ओर संकेत करती है कि न्याय करते समय न्यायाधीश को यह नहीं देखना चाहिए कि आरोपी या पीड़ित किस धर्म-जाति के हैं; न्याय केवल तथ्यों और सत्य पर आधारित हो। उदाहरण के लिए, एक अमीर एवं प्रभावशाली व्यक्ति दोषी हो तो कानूनी सत्य को उसकी हैसियत का “रंग” नहीं ढकना चाहिए, उसे भी कानून से वही सज़ा मिले जो किसी सामान्य व्यक्ति को मिलती। यह कारण है कि न्यायपालिका में निष्पक्षता (Ipartiality) को सबसे बड़ा गुण माना गया है। वर्तमान समय में सरकार की पारदर्शिता (transparency) भी “सत्य के रंगहीन” रहने से जुड़ी है। सूचना का अधिकार अधिनियम (RTI) इसी आदर्श पर बना कि जनता को सत्य जानने का अधिकार है, और सरकारी तंत्र को किसी भेदभाव या छिपाव के बिना जानकारी देनी चाहिए। कुल मिलाकर, एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में विधि का राज तभी स्थापित रह सकता है जब सत्यनिष्ठा हो और कानून सबको बराबर समझे – अर्थात सत्य किसी का पक्ष लेकर रंग न बदले। ऐतिहासिक दृष्टांत इतिहास गवाह है कि समय-समय पर कुछ लोग या व्यवस्थाएं सत्य को अपने “रंग” में रंगने की चेष्टा करती रहीं, किन्तु अंततः निष्पक्ष सत्य की ही विजय होती आई है। अमेरिका में 19वीं शताब्दी के दौरान रंगभेद और दासप्रथा का जोर था, लेकिन सुधारक फ्रेडरिक डग्लस जैसे नेताओं ने उद्घोष किया – “सही (न्याय) का कोई लिंग नहीं और सत्य का कोई रंग नहीं है”, परमात्मा हम सबका पिता है और हम सब भाई-बंधु हैं। यह प्रसिद्ध कथन 1847 में दिए गए डग्लस के उसी उद्धरण से लिया गया है जो दर्शाता है कि समानता और मानव अधिकार जैसे सत्य शाश्वत हैं, उन्हें नस्ल या लिंग के आधार पर सीमित नहीं किया जा सकता। इसी भावना को आगे बढ़ाते हुए अमेरिका में अब्राहम लिंकन ने 1863 में दासप्रथा उन्मूलन (मुक्ति उद्घोषणा) किया। लिंकन ने सिद्धांततः यह स्वीकार किया कि सभी मनुष्य बराबर हैं, और काले-गोरे का भेद असत्य एवं अन्याय है। यह सत्य कि “सभी जन समान हैं” किसी रंग-भेद को नहीं जानता था और इसी ने आगे चलकर अमेरिका में बराबरी के अधिकार दिलाने में नींव रखी। भारतीय संदर्भ में भी अनेक ऐतिहासिक घटनाएँ इस कथन को पुष्ट करती हैं। महात्मा गांधी के लिए “सत्याग्रह” केवल राजनीतिक उपाय नहीं बल्कि नैतिक सिद्धांत था – सत्याग्रह का अर्थ ही है “सत्य के प्रति आग्रह”। गांधीजी ने कहा था, “कोई

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NIRMAN IAS 25 August CA 2025 Hindi

Topic जन विश्वास 2.0 : विश्वास आधारित शासन की दिशा में कदम परिचय जन विश्वास (संशोधन विधेयक), 2025 जिसे जन विश्वास 2.0 भी कहा जाता है, हाल ही में लोकसभा में प्रस्तुत किया गया। यह विधेयक जन विश्वास अधिनियम, 2023 का विस्तार है।  वर्ष 2023 में पारित कानून के अंतर्गत 42 अधिनियमों की 183 धाराओं को अपराधमुक्त किया गया था। नए विधेयक का उद्देश्य 16 केंद्रीय अधिनियमों में संशोधन कर छोटे अपराधों और अनुपालनों को अपराधमुक्त बनाना तथा दंड प्रावधानों को अधिक युक्तिसंगत करना है।  इससे न केवल नागरिकों के जीवन में सरलता आएगी बल्कि व्यापार करना भी आसान होगा पृष्ठभूमि : जन विश्वास 2.0 की आवश्यकता 1. कानूनों में अत्यधिक अपराधीकरण विदि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी की रिपोर्ट बताती है कि 882 केंद्रीय कानूनों में से 370 में 7,305 अपराध परिभाषित हैं। इनमें से 75% अपराध ऐसे क्षेत्रों से जुड़े हैं जो मूल आपराधिक न्याय प्रणाली का हिस्सा नहीं हैं, जैसे– कराधान, नौवहन, वित्तीय संस्थान और नगरपालिका शासन। 2. असंगत दंड कई बार बहुत छोटे कार्यों पर भी गिरफ्तारी हो सकती है। उदाहरण: सड़क पर गाय का दूध निकालना या पालतू कुत्ते को घुमाने में लापरवाही। यह स्थिति अपराध और दंड के अनुपात (Proportionality) के सिद्धांत का उल्लंघन करती है। 3. व्यापार में रुकावट ORF रिपोर्ट 2022 के अनुसार: 1,536 व्यापारिक कानूनों में से 50% से अधिक में जेल की सजा का प्रावधान है। 69,233 अनुपालनों में से 37.8% में कारावास शामिल है। इस प्रकार, उद्यमिता, रोजगार सृजन और GDP वृद्धि प्रभावित होती है। 4. न्यायपालिका पर दबाव राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड के अनुसार जिला अदालतों में 3.6 करोड़ से अधिक आपराधिक मामले लंबित हैं। इनमें से 2.3 करोड़ मामले एक वर्ष से अधिक पुराने हैं। छोटे-छोटे प्रक्रियात्मक मामलों के कारण गंभीर अपराधों पर न्याय में देरी होती है। जन विश्वास विधेयक 2025 के प्रमुख प्रावधान 1. संशोधन का दायरा कुल 355 प्रावधानों में संशोधन का प्रस्ताव। 288 प्रावधान अपराधमुक्त। 67 प्रावधान नागरिकों के जीवन को आसान बनाने हेतु बदले जाएंगे। 2. शामिल अधिनियम इन 16 केंद्रीय अधिनियमों में संशोधन होगा, जिनमें शामिल हैं:  मोटर वाहन अधिनियम, 1988 भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934 केंद्रीय रेशम बोर्ड अधिनियम, 1948 सड़क परिवहन निगम अधिनियम, 1950 चाय अधिनियम, 1953 अपरेंटिस अधिनियम, 1961 दिल्ली नगर निगम अधिनियम, 1957 नई दिल्ली नगर परिषद अधिनियम, 1994 विद्युत अधिनियम, 2003 वस्त्र समिति अधिनियम, 1963 कोयर, जूट और अन्य औद्योगिक अधिनियम जन विश्वास अधिनियम, 2023 (पूरक संशोधन सहित) आदि। 3. प्रथम अपराधी के लिए प्रावधान पहली बार अपराध करने वालों के लिए चेतावनी और सुधार नोटिस जारी किया जाएगा। उदाहरण: ग़ैर-मानक वज़न और माप रखने पर पहले ₹1 लाख का जुर्माना था, अब सुधार का अवसर दिया जाएगा। 4. कारावास धाराओं का हटना छोटे प्रक्रियात्मक या तकनीकी अपराधों पर अब जेल की सजा नहीं होगी। उदाहरण: विद्युत अधिनियम, 2023 में गैर-अनुपालन पर पहले 3 माह की सजा थी, अब इसे केवल जुर्माने में बदला गया है। 5. दंड का युक्तिकरण हर 3 वर्ष में स्वतः 10% दंड वृद्धि का प्रावधान। फोकस अब जेल की बजाय आर्थिक दंड पर रहेगा। सरकार का तर्क यह विधेयक “न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन” की अवधारणा को मजबूत करता है। यह मेक इन इंडिया, ईज ऑफ डूइंग बिजनेस और न्यायिक सुधारों को समर्थन देता है। यह कानून तुच्छ अपराधों को अपराध घोषित करने वाले अप्रासंगिक और पुराने प्रावधानों को हटाने का प्रयास है।  विधेयक का महत्व यह विधेयक व्यवसाय करने की सरलता और नागरिकों के दैनिक जीवन को सहज बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। छोटे-छोटे अनुपालन उल्लंघनों के लिए कठोर दंड समाप्त कर भरोसेमंद शासन का वातावरण बनाया गया है। नागरिकों और उद्यमियों के बीच छोटे अपराधों या तकनीकी त्रुटियों के लिए दंडात्मक भय समाप्त होगा। इससे प्रशासन और जनता के बीच विश्वास-आधारित संबंध मजबूत होंगे। छोटे और प्रक्रियागत मामलों को अब प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा ही सुलझाया जा सकेगा। इससे न्यायालयों पर अनावश्यक मुकदमों का बोझ घटेगा और न्यायिक प्रक्रिया अधिक प्रभावी हो सकेगी। व्यवसाय करने वालों के लिए पूर्वानुमेय और भरोसेमंद माहौल तैयार होगा। इससे निवेशकों का विश्वास बढ़ेगा, नई आर्थिक गतिविधियों को प्रोत्साहन मिलेगा और सतत विकास को गति मिलेगी। निष्कर्ष जन विश्वास 2.0 वर्तमान में लोकसभा की सिलेक्ट कमेटी द्वारा समीक्षा में है और रिपोर्ट अगले सत्र में प्रस्तुत की जाएगी। यदि यह लागू होता है तो: अदालतों में लंबित मामलों का बोझ घटेगा। नागरिकों और सरकार के बीच विश्वास बढ़ेगा। भारत की छवि एक व्यापार-अनुकूल और निवेश-अनुकूल देश के रूप में और सशक्त होगी। Q. जन विश्वास (संशोधन) विधेयक, 2025 के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए : इस विधेयक के अंतर्गत कुल 355 प्रावधानों में संशोधन का प्रस्ताव किया गया है। विधेयक में 288 प्रावधानों को अपराधमुक्त किया गया है। यह विधेयक केवल भारतीय दंड संहिता, 1860 से संबंधित प्रावधानों को ही संशोधित करता है। ऊपर दिए गए कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? A. केवल 1 और 2 B. केवल 2 और 3 C. केवल 1 और 3 D. 1, 2 और 3 उत्तर : A (केवल 1 और 2) व्याख्या कथन 1 सही है : जन विश्वास 2.0 के अंतर्गत कुल 355 प्रावधानों में संशोधन का प्रस्ताव है। कथन 2 सही है : इनमें से 288 प्रावधान अपराधमुक्त किए जाएंगे। कथन 3 गलत है : यह विधेयक केवल भारतीय दंड संहिता तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें 16 केंद्रीय अधिनियम (जैसे – RBI अधिनियम 1934, औषधि अधिनियम 1940, मोटर वाहन अधिनियम 1988, विद्युत अधिनियम 2003, MSME अधिनियम 2006, लीगल मेट्रोलॉजी अधिनियम 2009 आदि) को शामिल किया गया है। ड्रेक पैसेज (Drake Passage) चर्चा में क्यों :  हाल ही में यह क्षेत्र 7.5 तीव्रता के भूकंप और सुनामी चेतावनी के कारण समाचारों में चर्चा का विषय बना, जिससे तटीय इलाकों में अलर्ट और जनजीवन प्रभावित हुआ। ड्रेक पैसेज (Drake Passage) के बारे में ड्रेक पैसेज दक्षिण अमेरिका के केप हॉर्न (Cape Horn) और अंटार्कटिका के साउथ शेटलैंड द्वीप समूह के बीच स्थित एक महत्वपूर्ण समुद्री मार्ग है।  यह मार्ग न केवल भौगोलिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि ऐतिहासिक और जलवायु संबंधी दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। भौगोलिक स्थिति ड्रेक पैसेज दक्षिण अमेरिका के केप हॉर्न और अंटार्कटिका के साउथ शेटलैंड द्वीप समूह के बीच स्थित है। इसकी चौड़ाई लगभग 800 किलोमीटर है। यह दक्षिणी महासागर (Southern Ocean) का सबसे संकरा भाग माना जाता है। यह मार्ग दक्षिण-पश्चिम अटलांटिक महासागर और दक्षिण-पूर्व प्रशांत महासागर को जोड़ता है। नामकरण और ऐतिहासिक महत्व इस जलमार्ग का नाम

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18 August 2025 Current Affair

पलामू टाइगर रिज़र्व चर्चा में क्यों? झारखंड के पालामू टाइगर रिज़र्व (PTR) में गौर (Bos gaurus) की आबादी में गंभीर गिरावट दर्ज की गई है। पलामू टाइगर रिज़र्व के बारे में पलामू टाइगर रिज़र्व झारखंड राज्य का एकमात्र बाघ संरक्षण क्षेत्र है।  इसे वर्ष 1974 में ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ के प्रथम चरण में देश के शुरुआती 9 टाइगर रिज़र्व में शामिल किया गया।  यह बेतला राष्ट्रीय उद्यान का एक हिस्सा है और अपनी जैव विविधता एवं संरक्षण इतिहास के लिए प्रसिद्ध है। भौगोलिक सीमा उत्तर में : गढ़वा ज़िला दक्षिण में : लातेहार और गुमला के वन क्षेत्र पूर्व में : लोहरदगा और रांची के पठारी भाग पश्चिम में : छत्तीसगढ़ की सीमा से सटे वन क्षेत्र भूगर्भीय संरचना यहाँ की प्रमुख चट्टानों में ग्नाइस, ग्रेनाइट, चूना पत्थर, क्वार्टज़ाइट और ऐंफिबोलाइट सम्मिलित हैं। गोंडवाना शैल संरचना में बलुआ पत्थर, शेल और हेमाटाइट पाई जाती हैं। यह क्षेत्र बॉक्साइट और कोयला जैसे खनिजों से समृद्ध है। भौगोलिक स्थिति एवं विस्तार यह छोटानागपुर पठार पर लातेहार एवं गढ़वा जिलों में स्थित है। कुल क्षेत्रफल 1,129.93 वर्ग किलोमीटर है। कोर क्षेत्र : 414.08 वर्ग किलोमीटर (महत्वपूर्ण बाघ आवास)। बफर क्षेत्र : 715.85 वर्ग किलोमीटर। इसकी स्थलाकृति घाटियों, पहाड़ियों और समतल मैदानों से मिलकर बनी है। नदियाँ एवं जल स्रोत इस क्षेत्र से तीन प्रमुख नदियाँ बहती हैं : उत्तर कोयल (North Koel) बुरहा (Burha) – यह एकमात्र नदी है जो पूरे वर्ष प्रवाहित रहती है। औरंगा (Auranga) यहाँ कई प्राकृतिक जलभृत (Aquifers) पाए जाते हैं जिन्हें स्थानीय भाषा में चुआन कहा जाता है। बरवाडीह के निकट तथा नामक सल्फर युक्त गर्म पानी का झरना भी मौजूद है। जलवायु एवं वर्षा यह क्षेत्र वृष्टि-छाया प्रभाव (Rain-shadow effect) के कारण सूखाग्रस्त माना जाता है। औसत वार्षिक वर्षा लगभग 1075 मिमी होती है। अधिकांश वर्षा दक्षिण-पश्चिम मानसून से होती है, तथा दक्षिणी भागों में वर्षा की मात्रा उत्तरी भागों से अधिक है। वनस्पति यहाँ मुख्य रूप से उष्णकटिबंधीय आर्द्र एवं शुष्क पर्णपाती वन पाए जाते हैं। प्रमुख वृक्ष प्रजातियाँ : साल   बांस (Bamboo) इस क्षेत्र में 970 पौधों की प्रजातियाँ, 17 घास की प्रजातियाँ तथा 56 औषधीय पौधों की प्रजातियाँ दर्ज की गई हैं। जीव-जंतु पालामू टाइगर रिज़र्व में प्रमुख जीव प्रजातियों में बाघ, एशियाई हाथी, तेंदुआ, ग्रे वुल्फ, गौर (Bos gaurus), स्लॉथ भालू (Sloth Bear) और चार सींग वाला मृग (Four-horned Antelope)  पाए जाते हैं, जबकि अन्य प्रजातियों में भारतीय पैंगोलिन, ऊदबिलाव शामिल हैं। ऐतिहासिक महत्व 1932 में पलामू क्षेत्र में विश्व का पहला पगमार्क आधारित बाघ गणना सर्वेक्षण आयोजित किया गया था।  इस सर्वेक्षण का नेतृत्व ब्रिटिश वन अधिकारी जे. डब्ल्यू. निकोल्सन ने किया था।  यह घटना वन्यजीव संरक्षण और वैज्ञानिक प्रबंधन की दृष्टि से एक ऐतिहासिक पड़ाव मानी जाती है। वर्ष 1974 में पलामू को भारत सरकार द्वारा ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ के अंतर्गत अधिसूचित किया गया और इसे देश के शुरुआती 9 टाइगर रिज़र्व में शामिल किया गया। इस प्रकार यह भारत के वन्यजीव संरक्षण इतिहास में विशेष स्थान रखता है। गौर (Bos gaurus) : भारतीय बाइसन गौर, जिसे भारतीय बाइसन (Indian Bison) के नाम से भी जाना जाता है, जंगली मवेशियों की सबसे बड़ी प्रजाति है।  यह बोविडाए (Bovidae) परिवार का सदस्य है और अपनी विशालकाय काया, शक्तिशाली रूप तथा सामाजिक झुंड आधारित जीवन शैली के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। वितरण गौर का मूल निवास क्षेत्र दक्षिण एशिया और दक्षिण–पूर्व एशिया है। भारत में इनकी उपस्थिति मुख्यतः निम्न क्षेत्रों में पाई जाती है : मध्य भारत झारखंड पश्चिमी घाट (केरल और कर्नाटक सहित) पूर्वोत्तर भारत के घने वन क्षेत्र आवास गौर का प्राकृतिक निवास घने और नम वनों में होता है। ये सदैव हरे (Evergreen), अर्ध-सदैव हरे (Semi-evergreen) और आर्द्र पर्णपाती (Moist deciduous) वनों में निवास करते हैं। इन्हें घासभूमि और खुले क्षेत्र विशेष रूप से उपयुक्त लगते हैं। इनका प्रमुख निवास क्षेत्र प्रायः 1500–1800 मीटर से नीचे की ऊँचाई वाले पहाड़ी इलाके होते हैं। इन्हें निर्बाध वन क्षेत्र और पर्याप्त जलस्रोत आवश्यक रूप से चाहिए होते हैं। संरक्षण स्थिति IUCN रेड लिस्ट में गौर (Bos gaurus) को संकटग्रस्त (Vulnerable) श्रेणी में शामिल किया गया है। साइट्स (CITES) में गौर को परिशिष्ट–I (Appendix I) में सूचीबद्ध किया गया है, जिसके तहत इसके अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर कड़ा नियंत्रण लागू है। भारत के वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के अंतर्गत गौर को अनुसूची–I (Schedule I) में रखा गया है, जिसके अंतर्गत इसे सर्वोच्च स्तर की कानूनी सुरक्षा प्राप्त है। पारिस्थितिक महत्त्व गौर वनों में पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने में सहायक हैं। यह बाघ और तेंदुए जैसे शीर्ष शिकारी जीवों के लिए एक प्रमुख शिकार प्रजाति है। शाकाहारी होने के कारण ये वनस्पति संरचना का संतुलन बनाए रखने और बीज प्रसार (Seed dispersal) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इनके संरक्षण से संपूर्ण वन्यजीव तंत्र का स्वास्थ्य और जैव विविधता सुरक्षित रहती है। प्रमुख खतरे वनों की कटाई, खनन और कृषि विस्तार के कारण वन्यजीवों का प्राकृतिक आवास लगातार सिकुड़ता जा रहा है। अवैध शिकार और मानव अतिक्रमण से वन्यजीवों की संख्या में तेजी से गिरावट आ रही है। पालतू पशुओं से रोग संक्रमण, विशेषकर रिंडरपेस्ट और फुट एंड माउथ डिज़ीज़ (FMD), वन्यजीवों के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न कर रहा है। आवासीय विखंडन के कारण वन्यजीव छोटे और अलग-थलग समूहों में सीमित हो गए हैं, जिससे उनकी आनुवंशिक विविधता घट रही है और भविष्य में उनका अस्तित्व और अधिक संकटग्रस्त हो सकता है। प्रश्न: निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए : पलामू टाइगर रिज़र्व भारत के शुरुआती नौ टाइगर रिज़र्व में से एक है जिसे 1974 में ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ के अंतर्गत अधिसूचित किया गया था। गौर (Bos gaurus) को IUCN रेड लिस्ट में संकटग्रस्त (Vulnerable), साइट्स (CITES) के परिशिष्ट–I तथा भारत के वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची–I में शामिल किया गया है। पलामू टाइगर रिज़र्व में बहने वाली तीन प्रमुख नदियों में से केवल बुरहा (Burha) नदी ही बारहमासी है। उपरोक्त में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं? (a) केवल 1 और 2 (b) केवल 2 और 3 (c) केवल 1 और 3 (d) 1, 2 और 3 उत्तर: (d) 1, 2 और 3 व्याख्या: कथन 1 सही है – पलामू टाइगर रिज़र्व देश के पहले 9 टाइगर रिज़र्व में शामिल है। कथन 2 सही है – गौर को IUCN में Vulnerable, CITES Appendix I और भारत के वन्यजीव संरक्षण अधिनियम की अनुसूची–I में रखा गया है। कथन 3 सही है – पलामू टाइगर रिज़र्व में उत्तर कोयल, औरंगा

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7 August 2025 Current Affairs

Topic : प्रधानमंत्री इंटर्नशिप योजना 2025 चर्चा में क्यों :  प्रधानमंत्री इंटर्नशिप योजना (PM Internship Scheme) के दूसरे पायलट राउंड में महिला आवेदकों की भागीदारी में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई है।  पहले राउंड में कुल आवेदकों में महिलाओं की हिस्सेदारी 31% थी, वहीं दूसरे राउंड में यह बढ़कर 41% हो गई है। UPSC पाठ्यक्रम: प्रारंभिक परीक्षा:  राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय महत्व की समसामयिक घटनाएँ। मुख्य परीक्षा:  सामान्य अध्ययन II: विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिए सरकारी नीतियां और हस्तक्षेप तथा उनके डिजाइन और कार्यान्वयन से उत्पन्न होने वाले मुद्दे। प्रधानमंत्री इंटर्नशिप योजना 2025 के बारे में : प्रधानमंत्री इंटर्नशिप योजना 2025 भारत सरकार की एक महत्वाकांक्षी पहल है, जिसका मुख्य उद्देश्य देश के युवाओं को देश की शीर्ष 500 कंपनियों में व्यावहारिक प्रशिक्षण (इंटर्नशिप) का अवसर देना है।  इस योजना के माध्यम से सरकार युवाओं को उद्योग की जरूरत के अनुसार तैयार करना चाहती है, जिससे वे भविष्य में रोजगार के लिए अधिक सक्षम बन सकें। संचालित मंत्रालय: कॉर्पोरेट कार्य मंत्रालय (Ministry of Corporate Affairs) योजना की शुरुआत कब हुई? यह योजना वित्त वर्ष 2024-25 के केंद्रीय बजट में घोषित की गई थी।  पायलट चरण की शुरुआत अक्टूबर 2024 में की गई थी, जिसमें देश भर के युवाओं को इंटर्नशिप के लिए आवेदन का अवसर दिया गया।  योजना का दूसरा राउंड जनवरी 2025 में शुरू किया गया हैं , इस राउंड  की पंजीकरण प्रक्रिया अगस्त 2025 से प्रारंभ की गई है। योजना का उद्देश्य युवाओं को कॉर्पोरेट सेक्टर की मांग के अनुसार तैयार करना। देश के नवोदित प्रतिभाओं को व्यावहारिक (practical) अनुभव देना। कौशल निर्माण और रोजगार क्षमता बढ़ाना। प्रधानमंत्री इंटर्नशिप योजना 2025 की प्रमुख विशेषताएँ पात्रता (Eligibility) इस योजना के लिए केवल भारतीय नागरिक आवेदन कर सकते हैं। आवेदन करने वाले उम्मीदवार की आयु 21 से 24 वर्ष के बीच होनी चाहिए। न्यूनतम शैक्षिक योग्यता कक्षा 10वीं या 12वीं, डिप्लोमा या किसी भी विषय में स्नातक डिग्री होना आवश्यक है। यदि अभ्यर्थी किसी प्रमुख संस्थान (जैसे IIT, IIM, NLU, CA, MBA, MBBS, PhD) से उच्च डिग्री प्राप्त कर चुके हैं तो वे पात्र नहीं माने जाएंगे। जिन परिवारों की वार्षिक आय ₹8 लाख से अधिक है या घर में कोई नियमित सरकारी कर्मचारी है, वे योजना के लिए पात्र नहीं होंगे। इंटर्नशिप की अवधि और लाभ इंटर्नशिप की अवधि अधिकतम 12 महीने (1 वर्ष) की होगी। प्रत्येक इंटर्न को प्रतिमाह ₹4,500 सरकार द्वारा डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (DBT) के माध्यम से दिए जाएंगे। कंपनी की सीएसआर निधि से प्रत्येक इंटर्न को अतिरिक्त ₹500 प्रतिमाह मिलेंगे। प्रत्येक चयनित इंटर्न को एक बार में ₹6,000 अतिरिक्त अनुदान (incidentals) के रूप में दिया जाएगा। इंटर्नशिप के दौरान सभी इंटर्न को बीमा सुरक्षा भी प्रदान की जाएगी। इंटर्नशिप पूर्ण होने पर प्रमाण-पत्र (Certificate) भी मिलेगा, जो आगे रोजगार में मददगार होगा। आवेदन की प्रक्रिया इच्छुक अभ्यर्थी आधिकारिक पोर्टल pminternship.mca.gov.in पर जाकर ऑनलाइन आवेदन कर सकते हैं। आवेदन के लिए अभ्यर्थी को आधार नंबर, शैक्षिक विवरण, पारिवारिक आय और अन्य आवश्यक जानकारी भरनी होती है। चयन प्रक्रिया के दौरान, उम्मीदवार अपनी पसंद के अनुसार कंपनियों, स्थान और कार्यक्षेत्र का चयन कर सकते हैं। चयनित उम्मीदवारों को कंपनियों का नाम, प्रोफाइल और जियो-टैग्ड लोकेशन की पूरी जानकारी उपलब्ध कराई जाती है। बजट और आंकड़े वित्त वर्ष 2024-25 में योजना के लिए ₹2,000 करोड़ का बजट प्रस्तावित था, जो संशोधित होकर ₹380 करोड़ रह गया और वास्तविक खर्च फरवरी 2025 तक मात्र ₹21.10 करोड़ था। 2025-26 में योजना के बजट को बढ़ाकर ₹10,831.07 करोड़ कर दिया गया है। दूसरे राउंड में 4.55 लाख से अधिक आवेदन आए, 71,000 से अधिक ऑफर किए गए, जिसमें 22,500 से अधिक अभ्यर्थियों ने ऑफर स्वीकार किए और चयन प्रक्रिया जारी है। पहले राउंड में 6.21 लाख आवेदन आए थे, 82,000 ऑफर दिए गए, लेकिन केवल 8,700 अभ्यर्थियों ने जॉइनिंग की थी। भाग लेने वाली कंपनियाँ प्रधानमंत्री इंटर्नशिप योजना 2025 में कई नामी कॉर्पोरेट कंपनियाँ भाग ले रही हैं, जैसे: रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज लिमिटेड (TCS) एचडीएफसी बैंक लिमिटेड ऑयल एंड नेचुरल गैस कॉरपोरेशन लिमिटेड (ONGC) इन्फोसिस लिमिटेड एनटीपीसी लिमिटेड टाटा स्टील लिमिटेड आईटीसी लिमिटेड इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन लिमिटेड (IOCL) आईसीआईसीआई बैंक लिमिटेड पावर ग्रिड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड टाटा संस प्राइवेट लिमिटेड विप्रो लिमिटेड एचसीएल टेक्नोलॉजीज लिमिटेड हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड जूबिलेंट फूडवर्क्स, ईचर मोटर्स, लार्सन एंड टुब्रो, टेक महिंद्रा, महिंद्रा एंड महिंद्रा, बजाज फाइनेंस, मुथूट फाइनेंस आदि पीएम इंटर्नशिप योजना 2025: महिला आवेदकों की भागीदारी में उल्लेखनीय वृद्धि पहले राउंड की स्थिति योजना के पहले पायलट राउंड में केवल 31% महिला आवेदकों ने आवेदन किया था। चयनित इंटर्न में महिलाओं का प्रतिशत मात्र 28% था। पुरुष और महिला इंटर्न का अनुपात 72:28 रहा, जिसे संसद की स्थायी वित्त समिति ने एक बड़ी चिंता के रूप में चिन्हित किया। दूसरे राउंड की स्थिति योजना के दूसरे पायलट राउंड में महिला आवेदकों की हिस्सेदारी बढ़कर 41% हो गई है, जो पिछले राउंड के मुकाबले 10% अधिक है। चयन प्रक्रिया अभी जारी है, लेकिन उम्मीद है कि इंटर्न के रूप में चयनित महिलाओं का प्रतिशत भी बढ़ेगा। यह बढ़ोतरी मुख्यतः कंपनियों के नाम, प्रोफाइल और भौगोलिक स्थान की पूर्व जानकारी साझा करने की वजह से संभव हुई है। योजना की चुनौतियाँ और सरकार द्वारा उठाए गए सुधारात्मक कदम प्रमुख चुनौतियाँ (A) लैंगिक असंतुलन योजना के पहले चरण में महिला इंटर्न की भागीदारी अपेक्षाकृत कम रही। कुल आवेदकों में महिलाओं की भागीदारी केवल 31% और चयनित इंटर्न में मात्र 28% थी।  इससे पुरुष और महिला इंटर्न का अनुपात 72:28 हो गया, जिसे संसद की स्थायी वित्त समिति ने प्रमुख चिंता के रूप में रेखांकित किया। (B) इंटर्नशिप अवसर और भागीदारी में अंतर कंपनियों द्वारा उपलब्ध कराए गए इंटर्नशिप अवसरों की तुलना में बहुत कम युवाओं ने वास्तव में जॉइनिंग की।  उदाहरण के लिए, पहले राउंड में 82,000 ऑफर दिए गए थे, लेकिन केवल 8,700 युवाओं ने जॉइनिंग की थी। इसका मुख्य कारण जानकारी की कमी, इंटर्नशिप की अवधि और स्थान से जुड़ी पारदर्शिता की कमी भी रही। (C) फंड्स का कम उपयोग वित्त वर्ष 2024-25 के लिए योजना का बजट ₹2,000 करोड़ था, लेकिन संशोधित अनुमान घटकर ₹380 करोड़ रह गया और फरवरी 2025 तक वास्तविक व्यय मात्र ₹21.10 करोड़ हुआ।  यह बताता है कि योजना के तहत उपलब्ध फंड्स का अपेक्षाकृत कम उपयोग हुआ है, जिससे युवाओं को मिलने वाले लाभ सीमित हो गए। (D) रोजगार में रूपांतरण दर कम योजना के तहत इंटर्नशिप पूर्ण करने के बाद भी स्थायी

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सर्वोच्च न्यायालय ने प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को पर्यावरण क्षतिपूर्ति लगाने का अधिकार दिया

सर्वोच्च न्यायालय ने प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को पर्यावरण क्षतिपूर्ति लगाने का अधिकार दिया चर्चा में क्यों?   हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति बनाम लोदी प्रॉपर्टी कंपनी लिमिटेड मामले में एक अहम फैसला सुनाया। इस निर्णय में कोर्ट ने कहा कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (PCB) अब पर्यावरण क्षतिपूर्ति और पुनर्स्थापनात्मक हर्जाना (restitutionary & compensatory damages) लगा सकते हैं।  दिल्ली उच्च न्यायालय ने पहले बोर्डों द्वारा ऐसे हर्जाने लगाने को उनकी शक्तियों से बाहर माना था, किंतु सर्वोच्च न्यायालय की पीठ (न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा व न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा) ने हाईकोर्ट का निर्णय उलट दिया। यह फैसला ऐसे समय आया है जब भारत भीषण प्रदूषण संकट का सामना कर रहा है – उदाहरण के लिए, 2018 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) ने 323 नदियों में 351 प्रदूषित नदी खंडों की पहचान की थी, और 2019 में वायु प्रदूषण से देश में 17 लाख से अधिक अकाल मृत्यु हुई थी। इन परिस्थितियों में पर्यावरण नियामकों को मजबूत अधिकार देकर प्रदूषण से निपटने के प्रयासों को बल मिल सकता है। पुनर्स्थापनात्मक व प्रतिपूरक क्षतिपूर्ति सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि प्रदूषणकारी इकाइयों द्वारा पर्यावरण को हुए नुकसान की भरपाई के लिए PCB पुनर्स्थापनात्मक (restoration) एवं प्रतिपूरक (compensatory) क्षतिपूर्ति वसूल सकते हैं। इसमें नियामक प्रदूषकों पर एक निश्चित धनराशि का जुर्माना लगा सकते हैं या भविष्य में संभावित नुकसान की भरपाई हेतु उनसे बैंक गारंटी जमा कराने को कह सकते हैं।  अदालत ने स्पष्ट किया है कि इन उपायों का उद्देश्य दंड देना नहीं, बल्कि प्रदूषित पर्यावरण का सुधार और पुनर्स्थापन करना है। अर्थात् इन क्षतिपूरक राशियों का उपयोग प्रभावित पर्यावरण (जैसे दूषित नदी या वायु गुणवत्ता) को उसकी मूल, स्वच्छ अवस्था में लौटाने के लिए किया जाएगा।  यह दृष्टिकोण ‘पोल्यूटर पेज़ प्रिंसिपल’ (Polluter Pays) पर आधारित है, जिसमें प्रदूषक को अपने कार्य से हुए नुकसान का आर्थिक भार उठाना पड़ता है। विधिक प्रावधान व शक्तियाँ न्यायालय ने अपने निर्णय में जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम 1974 की धारा 33A तथा वायु (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम 1981 की धारा 31A का उल्लेख किया। ये प्रावधान राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को लिखित आदेश द्वारा उद्योगों/इकाइयों को प्रदूषण रोकने हेतु दिशानिर्देश जारी करने की शक्ति देते हैं।  इन धाराओं के तहत बोर्ड प्रदूषणकारी इकाइयों को बंद करने, उनके संचालन पर रोक लगाने, या बिजली-पानी जैसी सुविधाएँ काटने जैसे कदम उठा सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने व्याख्या की कि इन्हीं शक्तियों के अंतर्गत बोर्ड प्रदूषण के संभावित जोखिम को रोकने के लिए अग्रिम रूप से जुर्माना या बैंक गारंटी जैसी शर्तें भी लगा सकते हैं।  यह 1988 में उपरोक्त अधिनियमों में जोड़े गए संशोधनों का प्रतिफल है, जिसने बोर्डों को प्रदूषण रोकथाम के लिए व्यापक आदेश जारी करने का अधिकार प्रदान किया था। ‘पोल्यूटर पेज़’ सिद्धांत  इस फैसले ने भारतीय पर्यावरण न्यायशास्त्र में स्थापित पोल्यूटर पेज़ सिद्धांत को और मजबूती प्रदान की है। न्यायालय ने दो टूक कहा कि पर्यावरण को वास्तविक क्षति हुई हो ये अनिवार्य नहीं है; यदि किसी गतिविधि से पर्यावरण को संभावित गंभीर नुकसान होने की संभावना है, तब भी प्रदूषक से क्षतिपूर्ति ली जा सकती है। अर्थात, पर्यावरणीय क्षति की संभावना मात्र से ही यह सिद्धांत लागू हो जाता है।  कोर्ट ने पूर्व के वेल्लोर सिटिज़न्स वेलफेयर फोरम बनाम भारत संघ (1996) तथा इंडियन काउंसिल फॉर एनवायरो-लीगल एक्शन बनाम भारत संघ (1996) जैसे ऐतिहासिक मामलों का हवाला दिया, जिनमें यह माना गया था कि पर्यावरण को हुए नुकसान की भरपाई करवाना न केवल एक वैधानिक बल्कि संवैधानिक दायित्व है, न कि दंडात्मक कार्रवाई।  इस प्रकार, वर्तमान निर्णय में भी कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि प्रदूषणकर्ता ने निर्धारित मानकों का उल्लंघन करके या बिना उल्लंघन के भी पर्यावरण को नुकसान पहुँचाया है या पहुँचाने की कगार पर है, तो उससे प्रतिपूरक हानि की भरपाई कराना न्यायोचित है। गौण विधान (उपविधि) की आवश्यकता  सुप्रीम कोर्ट ने जोर देकर कहा कि PCB द्वारा इन क्षतिपूरक शक्तियों के उपयोग को प्रभावी बनाने हेतु संबंधित नियमों का विधिसंगत ढाँचा बनाना आवश्यक है। न्यायालय के अनुसार “बोर्ड द्वारा पारदर्शी एवं मनमानी-रहित तरीके से क्षतिपूर्ति तय करने के लिए आवश्यक है कि अधीनस्थ कानून के रूप में स्पष्ट नियमावली व प्रक्रियाएँ अधिसूचित की जाएँ”।  इन नियमों में यह विवरण होना चाहिए कि पर्यावरणीय क्षति का मूल्यांकन कैसे होगा और उसके अनुरूप क्षतिपूर्ति राशि कैसे निर्धारित होगी। साथ ही, इन नियमों में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को समाहित करना अनिवार्य होगा, ताकि जुर्माना लगाने की प्रक्रिया निष्पक्ष व पारदर्शी रहे। वर्तमान में CPCB द्वारा दिसंबर 2022 में जारी “पर्यावरणीय क्षति मुआवजा लगाने हेतु सामान्य रूपरेखा” नामक दिशानिर्देशों का उल्लेख कोर्ट ने किया।  न्यायालय ने निर्देश दिया कि इन दिशानिर्देशों की समग्र समीक्षा कर उन्हें औपचारिक नियमों/उपविधियों के रूप में अधिसूचित किया जाए। जब तक ऐसे नियम नहीं बनते, तब तक बोर्ड क्षतिपूर्ति संबंधी शक्तियों का क्रियान्वयन शुरू नहीं करेंगे। इससे यह सुनिश्चित होगा कि क्षतिपूर्ति लगाने की शक्ति के उपयोग में किसी भी पक्ष के साथ अन्याय या मनमानी न हो।  सर्वोच्च न्यायालय की अतिरिक्त टिप्पणियाँ कोर्ट ने PCB की भूमिका पर महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों का कानून द्वारा बहुत व्यापक दायित्व निर्धारित है – उन्हें जल और वायु प्रदूषण को रोकने, नियंत्रित करने तथा समाप्त करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है। जल अधिनियम की धारा 17 और वायु अधिनियम की समकक्ष धारा में बोर्डों के कर्तव्यों की विस्तृत सूची है, जिससे स्पष्ट होता है कि जन स्वास्थ्य और पर्यावरण की रक्षा हेतु इन बोर्डों पर भारी ज़िम्मेदारी है।  न्यायालय ने कहा कि इतने व्यापक जनहित दायित्व को निभाने के लिए बोर्डों के पास उचित विवेकाधीन शक्तियाँ होना अपरिहार्य है, ताकि वे प्रत्येक मामले के अनुरूप उचित कार्रवाई चुन सकें। पीठ ने मार्गदर्शक सिद्धांत देते हुए दोहराया कि बोर्ड यह तय कर सकता है कि किसी प्रदूषणकारी इकाई के मामले में केवल आर्थिक दंड पर्याप्त है या पर्यावरण की तुरंत भरपाई कराना आवश्यक है – अथवा दोनों कदम उठाए जाएँ।  इसके अलावा, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि बोर्ड द्वारा पुनर्स्थापनात्मक क्षतिपूर्ति की कार्रवाई उन दंडात्मक प्रावधानों से भिन्न है जो संबंधित कानूनों के अध्याय VI-VII में दिये गए आपराधिक अपराधों (जैसे जेल या जुर्माना) के लिए हैं। बोर्ड द्वारा लगाई गई क्षतिपूर्ति का मकसद पर्यावरणीय सुधार है, जबकि अदालत या अधिकृत अधिकारी द्वारा लगाया जाने वाला जुर्माना एक दंड है।  न्यायालय ने 2022 में पर्यावरण संरक्षण कानूनों में हुए संशोधनों (जिनसे कई अपराध डिक्रिमिनलाइज़ होकर आर्थिक

करेंट अफेयर्स

उत्तराखंड में क्लाउडबस्ट

चर्चा में क्यों?   5 अगस्त 2025 की दो क्लाउडबस्ट घटनाओं (मुख्यतः खीरगंगा नदी के ऊपरी जलग्रहण क्षेत्र में) ने उत्तरकाशी ज़िले के धराली गाँव व आसपास के हर्षिल क्षेत्र में अचानक अत्यंत तीव्र बारिश फैलाई। इसके परिणामस्वरूप मिट्टी और पानी की तबाही—फ्लैश फ्लड एवं मलबे का बहाव—ने गाँव को लगभग बहा दिया। चार लोग मृत पाए गए, लगभग 100 लोग लापता बताए गए, और भारी संरचनात्मक क्षति हुई।  क्लाउडबर्स्ट (Cloudburst) क्या है? क्लाउडबर्स्ट एक अत्यंत तीव्र और स्थानीयकृत वर्षा की घटना है, जिसमें बहुत कम समय में किसी छोटे से क्षेत्र पर अत्यधिक मात्रा में बारिश होती है। यह अक्सर पहाड़ी या पर्वतीय क्षेत्रों में होती है और अचानक बाढ़ (Flash Flood), भूस्खलन (Landslide) और मलबे के प्रवाह (Debris Flow) जैसी आपदाओं को जन्म देती है। 1. आधिकारिक परिभाषा (IMD के अनुसार)  भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के अनुसार: क्लाउडबर्स्ट वह घटना है जब लगभग 20–30 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में 1 घंटे के भीतर कम से कम 100 मिलीमीटर वर्षा होती है। अत्यधिक तीव्र घटनाओं में यह दर 100–250 mm/घंटा तक भी पहुँच सकती है।  क्लाउडबर्स्ट (Cloudburst) के कारण    1. ओरोग्राफिक लिफ्ट और स्थलाकृति (Orographic Effect & Topography) जब नमी से भरी हवाएँ (मानसून या पश्चिमी विक्षोभ से) पर्वतीय ढलानों से टकराती हैं, तो वे मजबूरन ऊपर उठती हैं। ऊपर उठते ही हवा ठंडी होती है और उसमें मौजूद जलवाष्प क्यूम्युलोनिंबस (Cumulonimbus) बादलों में संघनित हो जाती है। जब बादल अत्यधिक जल‑वाष्प से भर जाते हैं, तो अचानक उनका संतुलन बिगड़ता है और तेज़ बारिश के रूप में पानी गिरता है।  2. वायुमंडलीय अस्थिरता (Atmospheric Instability) यदि पहाड़ों पर गर्म और ठंडी हवाओं का टकराव होता है, तो ऊर्ध्वाधर अस्थिरता (Vertical Convection) बढ़ जाती है। इस अस्थिरता के कारण बादल तेजी से विकसित होते हैं और सुपरसेल या क्यूम्युलोनिंबस बनकर अचानक वर्षा उत्पन्न करते हैं। यही प्रक्रिया लेह (2010) और केदारनाथ (2013) जैसी घटनाओं में देखी गई। 3. उच्च नमी और मानसूनी परिस्थितियाँ  मानसून के दौरान समुद्र से आने वाली हवाएँ भारी मात्रा में नमी लेकर आती हैं। यदि यह नमी पर्वतीय क्षेत्र में फंस जाए और अचानक संघनन हो जाए, तो क्लाउडबर्स्ट की संभावना अधिक होती है। 5–6 अगस्त 2025 को उत्तरकाशी (धराली) क्लाउडबर्स्ट में 1 घंटे में 210 mm से अधिक बारिश रिकॉर्ड हुई।  4. जलवायु परिवर्तन और चरम वर्षा घटनाएँ  ग्लोबल वार्मिंग के कारण हवा अधिक नमी सोखने में सक्षम हो गई है। जलवायु परिवर्तन के चलते अत्यधिक और अल्पकालिक वर्षा घटनाएँ बढ़ रही हैं। IMD और IPCC रिपोर्टों के अनुसार, हिमालयी क्षेत्रों में क्लाउडबर्स्ट घटनाओं की आवृत्ति पिछले 3 दशकों में बढ़ी है। 5. माइक्रो‑क्लाइमेट और स्थानीय परिस्थितियाँ  घाटियों में स्थानीय निम्नदाब क्षेत्र (Local Low Pressure Pockets) बन जाते हैं। संकरी घाटियाँ और नदी तल जल प्रवाह को तेज़ कर देती हैं। यदि बादल इन्हीं क्षेत्रों में फंस जाते हैं, तो अचानक क्लाउडबर्स्ट की स्थिति बनती है। 6. अन्य सहायक कारण  वनस्पति में कमी (Deforestation): ढलानों पर पेड़ों की कमी से जल धारण क्षमता घट जाती है और वर्षा सीधे तेज़ बहाव में बदल जाती है। मानव‑जनित निर्माण (Infrastructure Pressure):  सड़क, होटल, और अतिक्रमण प्राकृतिक जल मार्गों को रोक देते हैं, जिससे बारिश का पानी केंद्रित होकर बाढ़ का रूप ले लेता है। ग्लेशियर झीलों की नज़दीकी: यदि क्लाउडबर्स्ट ग्लेशियर झीलों के पास होता है, तो यह GLOF (Glacial Lake Outburst Flood) को ट्रिगर कर सकता है। क्लाउडबर्स्ट के संवेदनशील क्षेत्र (Vulnerable Regions) क्लाउडबर्स्ट मुख्यतः पर्वतीय और ढलानदार क्षेत्रों में होते हैं, जहाँ नमी से भरी हवाएँ तेजी से ऊपर उठती हैं। भारत में निम्नलिखित क्षेत्र सबसे अधिक संवेदनशील माने जाते हैं: हिमालयी क्षेत्र (उत्तर भारत) उत्तराखंड: उत्तरकाशी, चमोली, रुद्रप्रयाग, पिथौरागढ़ हिमाचल प्रदेश: कुल्लू, चंबा, किन्नौर जम्मू-कश्मीर और लद्दाख: गुलमर्ग, पहलगाम, लेह (2010 लेह क्लाउडबर्स्ट) इन क्षेत्रों में संकरी घाटियाँ और तीव्र ढलान जल प्रवाह को तेज़ कर देते हैं। पूर्वोत्तर राज्य अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड और मेघालय (विशेषकर चेरापूंजी और मौसिनराम) अत्यधिक मानसूनी नमी और संकरी घाटियाँ यहाँ जोखिम बढ़ाती हैं। पश्चिमी घाट और केरल वायनाड, इडुक्की, कोडगु क्षेत्र में भी जून–सितंबर के दौरान छोटे पैमाने पर क्लाउडबर्स्ट जैसी घटनाएँ दर्ज होती हैं। प्रभाव (Impact) A. बुनियादी ढांचे को नुकसान (Infrastructure Damage) सड़क और पुल: NH‑34 (उत्तरकाशी–गंगोत्री मार्ग) जैसी मुख्य सड़कें बार‑बार क्षतिग्रस्त होती हैं। धराली क्लाउडबर्स्ट (अगस्त 2025) में कई पुल और सड़कें पूरी तरह बह गईं। भवन और होटल: घाटियों और नदी किनारे बने होटल और घर बहाव की चपेट में आ जाते हैं। 2025 धराली आपदा में 40+ घर और 25–50 होटल ध्वस्त। पावर और टेलीकॉम: बिजली और संचार लाइनें टूट जाती हैं, जिससे राहत कार्य कठिन हो जाता है। B. गंगोत्री तीर्थ यात्रा पर प्रभाव (Disrupted Pilgrimage Route) यात्री मार्ग बाधित: NH‑34 और आसपास की लिंक सड़कों के बहने से गंगोत्री और यमुनोत्री की यात्रा रुक जाती है। तीर्थयात्री फँस जाते हैं: बारिश और भूस्खलन के कारण हजारों यात्री कई दिनों तक फँस जाते हैं। स्थानीय अर्थव्यवस्था प्रभावित: होटल, होमस्टे और टूरिज़्म पर निर्भर स्थानीय लोगों को भारी नुकसान। 3. भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) की चेतावनी प्रणाली (Warning Systems) डॉपलर वेदर रडार (DWR): देहरादून, श्रीनगर और शिलांग जैसे केंद्रों से 100–200 km दायरे में रियल‑टाइम वर्षा डेटा। ऑटोमैटिक वेदर स्टेशन (AWS): छोटे पैमाने की वर्षा घटनाओं की मॉनिटरिंग। रेड, ऑरेंज और येलो अलर्ट: 2025 उत्तरकाशी घटना के समय IMD ने 10 अगस्त तक रेड अलर्ट जारी किया। सैटेलाइट इमेजिंग और हाई‑रेज़ॉल्यूशन मॉडलिंग: INSAT‑3D/3DR और अब GIS आधारित चेतावनी प्रणाली क्लाउडबर्स्ट पहचान में मदद कर रही है। 4. निवारण और शमन उपाय (Mitigation Efforts)  पूर्व चेतावनी और रियल‑टाइम मॉनिटरिंग उच्च रेज़ॉल्यूशन Doppler रडार और Rain‑Gauge नेटवर्क का विस्तार। मोबाइल SMS और सायरन‑आधारित चेतावनी। संवेदनशील क्षेत्रों का मानचित्रण (Zonation) भूस्खलन और फ्लैश फ्लड प्रवण क्षेत्रों का GIS‑आधारित मैप तैयार करना। संवेदनशील गाँव और तीर्थ मार्गों पर नियमित निगरानी। बुनियादी ढांचे का सुरक्षित निर्माण नदी किनारे अवैध निर्माण पर रोक। पुल और सड़कें जल प्रवाह और मलबा बहाव को ध्यान में रखकर डिज़ाइन करना। समुदाय आधारित आपदा प्रबंधन स्थानीय लोगों को राहत‑बचाव और आपदा तैयारी में प्रशिक्षित करना। SDRF और NDRF के साथ मिलकर गाँव‑स्तरीय चेतावनी तंत्र। जलवायु अनुकूलन उपाय वनीकरण और कैचमेंट एरिया प्रबंधन। हिमालयी पारिस्थितिकी में अवसंरचना का सीमित और नियंत्रित विकास।

करेंट अफेयर्स

चोल विरासत में केवल भव्य मंदिर ही नहीं, बल्कि सुशासन भी शामिल है       

UPSC पाठ्यक्रम: प्रारंभिक परीक्षा: GS पेपर 3 – अर्थव्यवस्था और पर्यावरण  मुख्य परीक्षा: कृषि एवं जल संसाधन प्रबंधन, सतत अवसंरचना (बुनियादी ढांचा लचीलापन), संरक्षण पर्यावरण एवं विशिष्टता।   चर्चा में क्यों:- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जुलाई 2025 में गंगईकोंडा चोलपुरम यात्रा मोदी के उद्घोषणीय राजा राजराजा चोल और राजेंद्र चोल के स्मारकों की स्थापना की घोषणा लेकर आई। इस अवसर पर उन्होंने चोल वंश की प्रशासनिक, स्थापत्य और समुद्री पराकाष्ठा की विरासत को राष्ट्र निर्माण और संवर्धित प्रासंगिकता की रूपक बताया।    पृष्ठभूमि / Background चोल साम्राज्य (Chola Empire) दक्षिण भारत के इतिहास में 9वीं से 13वीं शताब्दी तक एक प्रमुख और प्रभावशाली शक्ति रहा। इसका प्रशासनिक ढाँचा, जल प्रबंधन और सांस्कृतिक उपलब्धियाँ आज भी अध्ययन का विषय हैं। चोल शासन ने न केवल भव्य मंदिरों और स्थापत्य की परंपरा दी, बल्कि सुशासन, स्थानीय स्वशासन और सतत संसाधन प्रबंधन का भी उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया। 1. राजेंद्र चोल प्रथम और साम्राज्य का विस्तार (1014–1044 CE) राजेंद्र चोल प्रथम चोल साम्राज्य के सबसे प्रख्यात शासकों में से एक थे। उन्होंने दक्षिण भारत के अतिरिक्त श्रीलंका, अंडमान-निकोबार द्वीप, मलेशिया और इंडोनेशिया (श्रीविजय साम्राज्य) तक अपना प्रभाव स्थापित किया। उन्होंने गंगईकोंडा चोलपुरम को अपनी नई राजधानी बनाया, जहाँ से साम्राज्य का प्रशासन संचालित होता था। उनके शासनकाल में नौसैनिक शक्ति और समुद्री व्यापार दोनों का अत्यधिक विकास हुआ। प्रशासनिक महत्त्व: राजेंद्र चोल ने साम्राज्य को मंडल, नाडु, कुर्रम और ग्राम इकाइयों में विभाजित किया। स्थानीय निकायों को मजबूत किया गया और कर वसूली का सुव्यवस्थित तंत्र विकसित हुआ। 2. करिकाल चोल और कल्लानई (Grand Anicut) करिकाल चोल (लगभग 150 ईस्वी) चोल वंश के प्रारंभिक शासक थे। उन्होंने कल्लानई बाँध (Grand Anicut) का निर्माण करवाया, जो आज भी कावेरी नदी पर स्थित है। यह विश्व की सबसे प्राचीन चालू मानव निर्मित जल-सिंचाई संरचनाओं में गिना जाता है। इसका उद्देश्य था:  नदी के जल का नियंत्रित वितरण सिंचाई के माध्यम से कृषि उत्पादन बढ़ाना अकाल और सूखे के प्रभाव को कम करना 3. ग्रामस्तरीय संस्थाएँ और स्थानीय स्वशासन चोल शासन की विशेषता ग्राम पंचायत आधारित प्रशासन और संसाधन प्रबंधन था। पंचायत (Gram Sabha): ग्राम के सामान्य प्रशासन, कर संग्रहण और विवाद निपटान की मुख्य इकाई। टैंक समिति (Eri Variyam): गाँव के तालाब और जलाशयों के रखरखाव के लिए जिम्मेदार। सिंचाई और जल संरक्षण को प्राथमिकता दी जाती थी। बागवानी समिति (Totta Variyam): उद्यान, फलदार वृक्षों और कृषि भूमि की देखरेख। भूमि उपयोग की दक्षता बढ़ाने में सहायक। इन समितियों की व्यवस्था यह दर्शाती है कि चोल शासन विकेंद्रीकृत प्रशासन, लोक सहभागिता और संसाधन प्रबंधन पर आधारित था। 4. आधुनिक संदर्भ में प्रासंगिकता चोल प्रशासनिक परंपरा आज भी पंचायती राज, जल संरक्षण और सतत विकास के लिए प्रेरणास्रोत है। SDG‑6 (Clean Water & Sanitation) और SDG‑11 (Sustainable Cities & Communities) की दिशा में यह ऐतिहासिक मॉडल एक सफल स्थानीय शासन और संसाधन प्रबंधन का उदाहरण प्रस्तुत करता है। हालिया घटनाक्रम / Current Developments   a 1. आदि तिरुवथिरै उत्सव 2025 का समापन वर्ष 2025 में 23 जुलाई से 27 जुलाई तक तमिलनाडु में गंगईकोंडा चोलपुरम स्थित ब्रहदीश्वर मंदिर में आयोजित किया गया, जो चोल सम्राट राजेंद्र चोल प्रथम की जयंती का पर्व है। इस उत्सव के समापन समारोह की अध्यक्षता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की, जिसमें उन्होंने सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परिदृश्य पर अपने विचार व्यक्त किए। 2. गंगा जल अनुष्ठान और प्रतीकात्मक महत्व पीएम मोदी ने गंगाईकोंडा चोलपुरम मंदिर में ‘कलश’ के द्वारा गंगा जल लाने का प्रतीकात्मक अनुष्ठान संपन्न किया। इसे चोल शासन की ऐतिहासिक परंपरा का पुनर्पाठ मानते हुए उनकी विजयी गंगा अभियान की याद दिलाई गई। यह कार्य अंगीकृत रूप से “गंगा-जलंयम जयस्तंभ (liquid pillar of victory)” की स्मृति को जीवंत करता है, जैसा कि ऐतिहासिक चोल शिलालेखों में उल्लेख है। 3. स्मारक सिक्का एवं सम्राटों की मूर्तियाँ प्रधानमंत्री ने राजेंद्र चोल और उनके पिता राजा राजराजा चोल की स्मृति में स्मारक सिक्का जारी किया । साथ ही उन्होंने दोनों सम्राटों की विशाल मूर्तियाँ स्थापित करने की घोषणा की, ताकि ऐतिहासिक चेतना और सांस्कृतिक गौरव को आधुनिक पीढ़ियों तक प्रस्थापित किया जा सके। 4. जल संरक्षण दिवस की मांग भारतीय किसान संघम द्वारा प्रस्ताव रखा गया कि आदि तिरुवथिरै दिवस को एक विशेष जल संरक्षण दिवस (International Day of Water Conservation) घोषित किया जाए। इस मांग का पृष्ठभूमि चोल कालीन जल-निकायों और सिंचाई प्रबंधन की श्रेष्ठ परंपरा थी। संघम ने इस पर दिनचर्या में किसानों, किसान संगठनों और जल प्रबंधन में उत्कृष्ट योगदान देने वाले संस्थाओं को सम्मानित करने की भी प्रस्तावित इच्छा जताई। 5. स्थानीय जल संरचनाओं का पुनर्दर्शन तमिलनाडु सरकार ने ₹19.2 करोड़ की राशि चोलागंगम (Cholagangam) जलाशय के पुनर्विकास पर खर्च करने की घोषणा की। इस परियोजना में जलाशय की बांध मजबूती, 15 किमी स्पिलवे और 38 किमी इनलेट नहर की सफाई, और पर्यटन सुविधाओं का विकास शामिल है।  इस आयोजन के साथ राज्य स्तर पर ₹55 करोड़ की चोल संग्रहालय योजना और 35‑फीट की राजा राजराजा चोल मूर्ति निर्माण का प्रस्ताव भी सामने आया।  6.प्रशासनिक और सांस्कृतिक संदर्भ ये हालिया पहलें चोल राजा के प्रशासनिक स्तर और उनके जल प्रबंधन कार्यों को वर्तमान शासन प्रणाली में सांस्कृतिक पुनरस्थापना, पर्यावरणीय संवेदनशीलता और स्थानीय विकास के मॉडल के रूप में पेश कर रही हैं। पीएम मोदी ने समारोह में चोल साम्राज्य को “Viksit Bharat के लिए प्राचीन रोडमैप” के रूप में वर्णित किया, जिसमें सामुद्रिक शक्ति, आर्थिक सफलता और सांस्कृतिक एकता का समन्वय दिखता है । महत्व / Significance चोल शासन का महत्व केवल सांस्कृतिक धरोहर और भव्य मंदिरों तक सीमित नहीं था, बल्कि यह सुशासन, जल-सुरक्षा, कृषि समृद्धि और व्यापारिक विस्तार का भी प्रतीक था। आधुनिक भारत में इसके कई पहलू प्रेरणादायक हैं, जिनका विश्लेषण निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है। 1. संप्रभुता और समुद्री शक्ति का प्रतीक चोल साम्राज्य ने न केवल दक्षिण भारत में, बल्कि श्रीलंका, मलय प्रायद्वीप और सुमात्रा तक अपना प्रभाव स्थापित किया। यह व्यापक समुद्री नेटवर्क और नौसैनिक शक्ति भारत की सामरिक संप्रभुता और समुद्री व्यापार सुरक्षा का प्रारंभिक उदाहरण था। आधुनिक भारत में सागरमाला परियोजना और इंडो-पैसिफिक रणनीति के संदर्भ में यह विरासत महत्वपूर्ण है। 2. जल सुरक्षा और कृषि समृद्धि का मॉडल करिकाल चोल द्वारा निर्मित कल्लानई (Grand Anicut) आज भी कावेरी नदी पर सिंचाई का आधार है। चोल काल में eri variyam (टैंक समिति) और

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